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Saturday, 29 October 2016

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धन्यबाद

विश्व के महान वैज्ञानिक

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विश्वविख्यात 50 से अधिक वैज्ञानिकों द्वारा गणित, भौतिकी, चिकित्सा, रसायन, आदि क्षेत्रों में किये गये  आविष्कारों व अनुसंधानों का सरल भाषा में तथा चित्रों सहित वर्णन साथ ही उनके जीवन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं की जानकारी।

पाइथागोरस

जैसी प्रसिद्धि पाइथागोरस के सिद्धान्त को मिली, वैसी गणित में किसी मौलिक नियम को शायद नहीं मिली हो। इस सिद्धांत को सबसे पहले मिस्रवासी अमल में लाए। परन्तु उनके पास इसके सही होने का कोई प्रमाण नहीं था। इसलिए इस नियम की सत्यता को गणित को अनुसार सर्वप्रथम प्रमाणित करने का श्रेय पाइथागोरस को दिया जाता है।
पाइथागोरस का सिद्धांत यह प्रमाणित करता है कि समकोण त्रिभुज की दोनों छोटी भुजाओं पर बनाए गए वर्गों के क्षेत्रफल का योग, उसी त्रिभुज की तीसरी भुजा के कर्ण पर बनाए गए वर्ग के क्षेत्रफल के बराबर होता है। समकोण त्रिभुज का एक कोण 900 का होता है। यह सिद्धांत समस्त उद्योग विद्या का आधार है।

नाप-तोल के इतिहास में महत्त्वपूर्ण वह समकोण त्रिभुज है, जिसकी एक भुजा की लम्बाई यदि 3 इंच हो और दूसरी भुजा की 4 इंच की तो इस त्रिभुज की समकोण के सामने-वाली तीसरी भुजा (जिसे हाईपोटेनस अथवा कर्ण कहते हैं) 5 इंच लंबी होगी। आगे चित्र में यही बात और भी स्पष्ट हो जाती है। दोनों भुजाओं पर बने छोटे-छोटे वर्गों की संख्या क्रमशः 9 और 16 है, जबकि बड़ी भुजा पर बने उस किस्म के वर्ग संख्या में 25 हैं। अर्थात् 3 : 3 धन 4 : 4 बराबर 5 : 5। यह नियम किसी भी समकोण त्रिभुज के लिए सही उतरेगा। ज्यामिति में पाइथागोरस का यह सिद्धांत इतना मनोरंजक सिद्ध हुआ है कि उसकी सत्यता के प्रमाण में एक सौ एक से अधिक सबूत दिए जा चुके हैं। इनमें अमरीका के राष्ट्रपति गारफील्ड की एक मौलिक सिद्धि भी शामिल है।

पाइथागोरस का जन्म ग्रीस के सामोस द्वीप में ईसा से लगभग 582 साल पहले हुआ था। उसके व्यक्तिगत जीवन के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। सम्भवतः उसने भूमध्य सागर के उस पार मिस्र देश में जाकर वहां के विद्या-केन्द्रों का निरीक्षण किया था। 529 ई.पू. में अत्याचारी सम्राट पालीक्रैटीज़ ने पाइथागोरस को ग्रीस देश से निकाल दिया। तब वह इटली के दक्षिण में चला गया। वहां अपने अनुयायियों के साथ उसने एक सम्प्रदाय की नींव डाली। यह सम्प्रदाय एक ऐसा भ्रातृमण्डल था, जिसकी आस्था गणित-धर्म और दर्शन के अध्ययन में थी। इस मण्डल के सभी सदस्य धनी-मानी परिवारों के कुलीन व्यक्ति थे। उन्होंने मण्डल की कार्यवाही को गुप्त रखने की शपथ ली थी। जिसका परिणाम यह हुआ था कि आम जनता इस मण्डल के सदस्यों को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। पाइथागोरस और उनके अनुयायियों का विचार था कि मनुष्य की आत्मा अमर है और वह बार-बार पृथ्वी पर आती है तथा विभिन्न लोगों में और विभिन्न देशों में जन्म लेती है। पाइथागोरस का विश्वास था कि मनुष्यों और पशुओं में कुछ स्वाभाविक सम्बन्ध होता है। अतः मनुष्य-आत्मा किसी पशु में भी उतर सकती है। परन्तु यदि मनुष्य सात्त्विक जीवन बिताए तो इस संकट से बच सकता है। इस विश्वास के परिणामस्वरूप भ्रातृमण्डल के नियमों में कुछ कठोरता आ गई थी : आत्मसंयम, आन्तरिक पवित्रता, मिताहार और आज्ञाकारिता—ये पाइथागोरस के सम्प्रदाय के प्रतीक थे।

पाइथागोरस के शिष्यों ने ही कोपरनिकस को पहले-पहल यह संकेत दिया था कि ब्रह्मांड का केन्द्र सूर्य है। पाइथागोरस का विश्वास था कि ग्रह-नक्षत्रों की परिक्रमा का पथ वृत्ताकार ही होना चाहिए, क्योंकि उसके मतानुसार परिक्रमा का सर्वश्रेष्ठ पथ वृत्त के सिवाय दूसरा नहीं हो सकता। उसकी मान्यता थी कि पृथ्वी, तारे, नक्षत्र, ब्राह्माण्ड सभी वृत्ताकार हैं, क्योंकि स्थूल वस्तुओं में वृत्त ही सबसे अधिक परिपक्व-ठोस आकार के हैं।

भ्रातृमण्डल में नक्षत्रविद्या के पारखी और गणितज्ञ तो थे ही, जीवविद्याविद् और शरीरशास्त्री भी थे। इन शरीरवैज्ञानिकों ने खोज करके दृष्टि-तंत्रिका (आप्टिक नर्ब्ज़) तथा ‘त्रिपथगा’ (यूस्टेकियन ट्यूब्ज़) का पता लगाया था।

पाइथागोरस के शिष्य अपने गणित-सम्बन्धी ज्ञान को संगीत में भी उतार लाए। संगीत का स्वर मूलतः एक शुद्ध कर्णप्रिय ध्वनि होता है। कुछ तार-स्वर ऐसे होते हैं, जो एक साथ बजने पर मधुर लगते हैं, जबकि वे कुछ अन्य स्वरों के साथ बजने पर कटु लगते हैं। पाइथागोरस ने इसका कारण ढूंढ़ निकाला कि सितार के तारों की लम्बाई जब एक-दूसरे के साथ सरल अनुपात में होती है, तब उन्हें एक साथ छेड़ने से उठनेवाली आवाज़ में एक प्रकार की मधुर एकरसता होती है। उदाहरण के लिए, यदि एक तार दूसरे तार से दुगना लम्बा हो और दोनों की मुटाई और तनाव एक-सा हो, तो उन्हें एक साथ छेड़ने पर मधुर ध्वनि निस्सृत होगी। यही स्थिति उस समय भी रहेगी जब तारों की लम्बाई का अनुपात 2 : 3 अथवा 4 : 3 हो। संगीत की शब्दावली में 2 : 1 का अर्थ उस अष्टक से है, जो वाद्ययंत्र की कुंजियों को जोड़ता है। 3 : 2 शुद्ध पंचम है; 4 : 3 चतुर्थ शुद्ध स्वर है। संगीतज्ञ स्वरों के इस मेल को शुद्धतम ध्वनियां मानते हैं।

दो सौ वर्ष बाद एरिस्टॉटल (अरस्तु) ने पाइथागोरियन परम्परा के बारे में कहा था, ‘‘इन लोगों ने अपना जीवन ही गणित को समर्पित कर दिया था और इन्हीं के कारण गणित की प्रगति सम्भव हुई। इस वातावरण में पलते और बढ़ते हुए इनका विचार यह बन गया था कि संसार की हरेक वस्तु गणित के ही सिद्धांत पर आधारित होनी चाहिए।’’
आज का वैज्ञानिक विश्व के गणितीय सूत्रों की मान्यताओं को आबद्ध करने में लगे हुए हैं।

यूक्लिड


‘‘युवावस्था में इस किताब के हाथ लगते ही यदि किसीकी दुनिया एकदम बदल नहीं जाती थी तो हम यही समझते थे कि वह अन्वेषण की सूक्ष्म बुद्धि से वंचित है।’’ यह उक्ति आइन्सटाइन की है। आज इस किताब को लिखे दो हज़ार साल से अधिक हो गए हैं, फिर भी हाईस्कूल के विद्यार्थी आज भी इसे पढ़ते हैं।
आइन्सटाइन का संकेत यूक्लिड की ‘एलीमेंट्स’ (ज्यामिति-मूल्यतथ्य’ नामक जानी-मानी पुस्तक की ओर है। दुनिया की हर भाषा में इसका अनुवाद हो चुका है। अंग्रेजी में इसका पहला संस्करण 1570 में निकला था। यह अंग्रेज़ी अनुवाद लैटिन अनुवाद पर और लैटिन अनुवाद मूल ग्रीक के अरबी रूपान्तर पर आधारित है। मूल ग्रीक की रचना ईसा से लगभग 300 साल पहले हो गई थी।

अलेक्जेण्ड्रिया का निवासी यूक्लिड एक ग्रीक गणितज्ञ और अध्यापक था। उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ मालूम नहीं। आज तक ऐसे कोई भी कागजात नहीं मिले, जिनसे यूक्लिड की जन्म-तिथि या उसके जन्म-स्थान के बारे में जानकारी मिलती। हम इतना ही जानते हैं कि वह अलेक्ज़ेण्ड्रिया के राजकीय विद्यालय में गणित का अध्यापक था और उसकी लिखी पुस्तक की जितनी प्रतियां आज तक बिक चुकी हैं उतनी शायद बाइबल को छोड़कर किसी दूसरी पुस्तक की नहीं बिकीं।
यूक्लिड को ज्यामिति का जनक कहा जाता है, और यह सही है। उसने ज्यामिति के सभी ज्ञात तत्त्वों का संग्रह किया। व्यावहारिक आवश्यकताओं के कारण विकसित हुए इन सामान्यता विसंगत तत्त्वों को उसने सुबोध, सुसंगत और सुन्दर पद्धति से सुव्यवस्थित किया ताकि एक प्रमाण अगले प्रमाण की आधारभूमि बनता जाए। यह सब यूक्लिड ने इस खूबी के साथ किया कि एक प्रमेय दूसरे गणितीय प्रमाण का आधार बनता चला गया। और सिद्ध किया जा सका कि यदि मनुष्य अपनी विचार-शक्ति का उपयोग करे तो वह क्या नहीं कर सकता ?

मिस्र को ‘नील नदी का उपहार’ कहा जाता है। पुराने मिस्र की बहुत कुछ ख्याति इसी नदी के कारण हुई। नील नदी हर साल बाढ़ में अपने किनारों को तोड़कर सुदूर पहाड़ियों की काली उपजाऊ मिट्टी बहा लाती है। यही मिस्र की खेती-बाड़ी का रहस्य है। बाढ़ों से दौलत तो मिली, लेकिन बहुत-सी समस्याएँ भी सामने आईं। नील नदी हर साल आपना रुख बदलती है। इसलिए जमीन की सीमाएं बदल जाती हैं और अस्पष्ट हो जाती हैं। ज़मीन का कर वसूल करना कठिन होता है, क्योंकि हर आदमी के हक में आनेवाली जमीन की सीमा निश्चित नहीं होती। कर लगने के लिए यह बात ज़रूरी होती है।
ज्यमिति शब्द का मूल अर्थ है—‘ज़मीन नापना’। ज़मीन नापने के लिए ही ज्यमिति का विकास हुआ। जान पड़ता है कि मिस्रवासियों ने ज्यामिति के सैद्धान्तिक पक्ष पर विशेष ध्यान नहीं दिया। हालांकि वर्षों से वे उन्हीं सिद्धान्तों पर अमल कर रहे थे और अपना काम अच्छी तरह चला रहे थे। ज्यमिति संबंधी उनके ज्ञान में त्रुटियां भी थीं। असम ज़मीन को छोटे-छोटे त्रिभुजाकार टुकड़ों में बांटा जाता था। उनके क्षेत्रफल को जोड़कर पूरी तरह ज़मीन के क्षेत्रफल का हिसाब कर लिया जाता था। फल यह होता था कि कितने ही छोटे-छोटें ज़मींदार हर साल सरकारी खज़ाने में कुछ ज़्यादा ही रकम देते थे। लाचारी यों थी कि कि भू-सर्वेक्षक ज़मीन का रकबा निकालने के लिए गलत तरी़का अपनाते थे।

मिस्रवासी भू-सर्वेक्षण यंत्र के बिना ही समकोण बना लेते थे। हम खेल के मैदान बनाने या खेत पर मचान की नींव डालते समय आज भी वैसा ही करते हैं। समकोण बनाने के लिए एक रस्से के बने त्रिभुज को काम में लाते थे। इसकी भुजाएँ क्रमशः 3:4:5 होती थीं। जब इस रस्से को किनारों की गांठों के सहारे ताना जाता था तो 3:4 की लम्बाई के बीच बना हुआ समकोण बन जाता था। इसीलिए मिस्र के भू-सर्वेक्षकों को ‘रस्सा ताननेवाला’ कहा जाता था।

ग्रीक गणितज्ञ थेलीज़ ने जब मिस्रवासियों के इन ज्यामितीय नियमों के बारे में सुना तो उसे आश्चर्य हुआ कि उनका प्रयोग इतना सही कैसे उतरता है। ज्यामिती को विज्ञान के रूप में विकसित करने के लिए यही जिज्ञासा पहला कदम सिद्ध हुई। अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए थेलीज़ ने यह नियम बनाया कि किसी भी सिद्धान्त के निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए ज्ञात तथ्यों को ही आधार मनाना चाहिए और जहां तक हो सके इन्हीं के सहारे अपनी चिन्तन-प्रक्रिया में आगे बढ़ना चाहिए। थेलीज़ जानता था कि ज्यामिति एक व्यावहारिक विज्ञान है, जिसका उपयोग नौचालन और ज्योतिर्विज्ञान में उसी तरह किया जा सकता है; जिस तरह ज़मीन नापने या पिरामिड बनाने में। ज्यामिति के विकास में अगला कदम पाइथागोरस और उसके शिष्यों ने उठाया। उन्होंने ज्यामिति को व्यावहारिक पक्ष से अलग कर लिया। वे ज्यामिति तथ्यों के तर्कपूर्ण प्रमाण खोजने में ही लगे रहे। इस प्रणाली को उन्होंने इस प्रकार विकसित किया कि वह इतना समय बीत जाने के बाद आज भी स्थिर है।

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Friday, 28 October 2016

सिंह सेनापति-राहुल संकृतायन

 



























महापण्डित राहुल सांकृत्यायन (जन्म- 9 अप्रैल1893; मृत्यु- 14 अप्रैल1963) को हिन्दी यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद थे और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था।
राहुल जी की प्रकाशित कृतियों का क्रम इस प्रकार है-

उपन्यास-कहानी

मौलिकअनुवाद
  • 'सतमी के बच्चे' (कहानी, 1939 ई.)
  • 'जीने के लिए' (1940 ई.)
  • 'सिंह सेनापति' (1944 ई.)
  • 'जय यौधेय' (1944 ई.)
  • 'वोल्गा से गंगा' (कहानी संग्रह, 1944 ई.)
  • 'मधुर स्वप्न' (1949 ई.)
  • 'बहुरंगी मधुपुरी' (कहानी, 1953 ई.)
  • 'विस्मृत यात्री' (1954 ई.)
  • 'कनैला की कथा' (कहानी, 1955-56 ई.)
  • 'सप्तसिन्धु'
  • 'शैतान की आँख' (1923 ई.)
  • 'विस्मृति के गर्भ से' (1923 ई.)
  • 'जादू का मुल्क' (1923 ई.)
  • 'सोने की ढाल' (1938)
  • 'दाखुन्दा' (1947 ई.)
  • 'जो दास थे' (1947 ई.)
  • 'अनाथ' (1948 ई.)
  • 'अदीना' (1951 ई.)
  • 'सूदख़ोर की मौत' (1951 ई.)
  • 'शादी' (1952 ई.)

दर्शन

  • 'वैज्ञानिक भौतिकवाद' (1942 ई.)
  • 'दर्शन दिग्दर्शन' (1942 ई.)
  • 'बौद्ध दर्शन' (1942 ई.)

कोश

  • 'शासन शब्द कोश' (1948 ई.)
  • 'राष्ट्रभाषा कोश' (1951 ई.)

जीवनी

  • 'मेरी जीवन यात्रा' (दो भागों में 1944)
  • 'सरदार पृथ्वी सिंह' (1944 ई.)
  • 'नये भारत के नये नेता' (1944 ई.)
  • 'राजस्थानी रनिवास' (1953 ई.)
  • 'बचपन की स्मृतियाँ' (1953 ई.)
  • 'अतीत से वर्तमान' (1953 ई.)
  • 'स्तालिन' (1954 ई.)
  • 'कार्ल मार्क्स' (1954 ई.)
  • 'लेनिन' (1954 ई.)
  • 'अकबर' (1956 ई.)
  • 'माओत्से तुंग' (1954 ई.)
  • 'घुमक्कड़ स्वामी' (1956 ई.)
  • 'असहयोग के मेरे साथी' (1956 ई.)
  • 'जिनका मैं कृतज्ञ' (1956 ई.)
  • 'वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली' (1957 ई.)

बौद्ध धर्म

  • 'बुद्धचर्या' (1930 ई.)
  • 'धम्मपद' (1933 ई.)
  • 'मज्झिमनिकाय' (1933)
  • 'विनय पिटक' (1934 ई.)
  • 'दीर्घनिकाय' (1935 ई.)
  • 'महामानव बुद्ध' (1956 ई.)

राजनीति साम्यवाद

  • 'बाइसवीं सदी' (1923 ई.)
  • 'साम्यवाद ही क्यों' (1934 ई.)
  • 'दिमागी ग़ुलामी' (1937 ई.)
  • 'क्या करें' (1937 ई.)
  • 'तुम्हारी क्षय' (1947 ई.)
  • 'सोवियत न्याय' (1939 ई.)
  • 'राहुल जी का अपराध' (1939 ई.)
  • 'सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास' (1939 ई.)
  • 'मानव समाज' (1942 ई.)
  • 'आज की समस्याएँ' (1944 ई.)
  • 'आज की राजनीति' (1949 ई.)
  • 'भागो नहीं बदलो' (1944 ई.)
  • 'कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?' (1953 ई.)

देश दर्शन

  • 'सोवियत मध्य एशिया' (1947 ई.)
  • 'किन्नर देश' (1948 ई.)
  • 'दार्जिलिंग परिचय' (1950 ई.)
  • 'कुमाऊँ' (1951 ई.)
  • 'गढ़वाल' (1952 ई.)
  • 'नैपाल' (1953 ई.)
  • 'हिमालय प्रदेश' (1954 ई.)
  • 'जौनसागर देहरादून' (1955 ई.)
  • 'आजमगढ़ पुरातत्त्व' (1955)

संस्कृत बालपोथी (सम्पादन) दर्शन, धर्म

  • 'वादन्याय' (1935 ई.)
  • 'प्रमाणवार्त्तिक' (1935 ई.)
  • 'अध्यर्द्धशतक' (1935 ई.)
  • 'विग्रहव्यावर्त्तनी' (1935 ई.)
  • 'प्रमाणवार्त्तिकभाष्य' (1935-36 ई.)
  • 'प्र. वा. स्ववृत्ति टीका' (1937 ई.)
  • 'विनयसूत्र' (1943 ई.)

यात्रा

  • 'मेरी लद्दाख यात्रा' (1926 ई.)
  • 'लंका यात्रावली' (1927-28 ई.)
  • 'तिब्बत में सवा वर्ष' (1939 ई.)
  • 'मेरी यूरोप यात्रा' (1932 ई.)
  • 'मेरी तिब्बत यात्रा' (1934 ई.)
  • 'यात्रा के पन्न' (1934-36 ई)
  • 'जापान' (1935 ई.)
  • 'ईरान' (1935-37 ई.)
  • 'रूस में पच्चीस मास' (1944-47 ई.)
  • 'घुमक्कड़ शास्त्र' (1949 ई.)
  • 'एशिया के दुर्गम खण्डों में' (1956 ई.)

साहित्य और इतिहास

  • 'विश्व की रूपरेखा' (1923 ई.)
  • 'तिब्बत में बौद्ध धर्म' (1935 ई.)
  • 'पुरातत्त्व निबन्धावलि' (1936 ई.)
  • 'हिन्दी काव्यधारा' (अपभ्रंश, 1944 ई.)
  • 'बौद्ध संस्कृति' (1949 ई.)
  • 'साहित्य निबन्धावली' (1949 ई.)
  • 'आदि हिन्दी की कहानियाँ' (1950 ई.)
  • 'दक्खिनी हिन्दी काव्यधारा' (1952 ई.)
  • 'सरल दोहा कोश' (1954 ई.)
  • 'मध्य एशिया का इतिहास, 1,2' (1952 ई.)
  • 'ऋग्वैदिक आर्य' (1956 ई.)
  • 'भारत में अंग्रेज़ी राज्य के संस्थापक' (1957 ई.)
  • 'तुलसी रामायण संक्षेप' (1957 ई.)

भोजपुरी नाटक

  • 'तीन नाटक' (1944 ई.)
  • 'पाँच नाटक' (1944 ई.)
Note: Read font का पुस्तक इस ब्लॉग मे up lode है।
सिंह सेनापति उपन्यास के स्प में आपके सामने उपस्थित हो रहा है । सिंह सेनापति के समकालीन समाज को चित्रित करने में मैंने ऐतिहासिक कर्तव्य और औचित्य का पूरा ध्यान रखा है ।

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Saturday, 8 October 2016

शेखर -एक जीवनी-अज्ञेय


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' (अंग्रेज़ीSachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Agyeya', जन्म: 7 मार्च1911कुशीनगर - मृत्यु: 4 अप्रैल1987 नई दिल्लीहिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। अज्ञेय को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है।


प्रमुख कृतियाँ

  • कविता भग्नदूत (1933)
  • चिंता (1942)
  • इत्यलम (1946)
  • हरी घास पर क्षण भर (1949)
  • बावरा अहेरी (1954)
  • आंगन के पार द्वार (1961)
  • पूर्वा (1965)
  • कितनी नावों में कितनी बार (1967)
  • क्योंकि मैं उसे जानता हूँ (1969)
  • सागर मुद्रा (1970)
  • पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ (1973)

उपन्यास

  • शेखर,एक जीवनी (1966)
  • नदी के द्वीप (1952)
  • अपने अपने अजनबी (1961)


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Thursday, 6 October 2016

सोना और खून -भाग 1-आचार्य चतुरसेन


 सोना पूँजी का प्रतीक है और खून युद्ध का। युद्ध प्रायः पूँजी के लिए होते हैं और पूँजी से ही लड़े जाते हैं।...................++++++++++ सोना और खून पूँजी के लिए लड़े जाने वाले एक महान युद्ध की विशाल पृष्ठभूमि पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, आचार्य जी का सबसे बड़ा उपन्यास। इस उपन्यास के चार भाग है। 1.तूफान से पहले 2.तूफान 3.तूफान के बाद और 4.चिनगारियाँ। ये चारों भाग मुख्य कथा से सम्बद्ध होते हुए भी अपने में पूर्ण स्वतन्त्र है भारत में अंग्रेजी राज स्थापित होने की पूरी पृष्ठभूमि से आरम्भ होकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति तक का सारा इतिहास सरस कथा के माध्यम से इसमें आ गया है। इसमें आचार्य जी ने प्रतिपादित किया है कि भारत को अंग्रेजों ने नहीं जीता और 1857 की क्रांति राष्ट्रीय भावना पर आधारित नहीं थी। साथ ही वतन की स्वतन्त्रता प्राप्ति पर उस क्रांति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह उपन्यास एक अलग तरह की विशेषता लिए हुए हैं। इतिहास और कल्पना का ऐसा अद्भुत समन्वय ...................आचार्यजी जैसे सिद्धहस्त कलाकार की लेखनी से ही सम्भव था।

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Monday, 3 October 2016

हिन्दी ब्लोगस कुछ दिन बाद क्यू बंद हो जाते है ??????? --Hindi blog Bachao Abhiyan

यह हमार निराशा हो सकता है .... लेकिन दिल मे आज यह लिखने को आया सो लिख रहा हु...... हो सकता है बुरा लगे इसलिए मफ़ही पहले मांग रहा हूँ........     अब शुरू करता हु अपने शीर्षक से ----

हिन्दी ब्लोगस कुछ दिन बाद क्यू बंद हो जाते है ??????? 

1हम हिन्दी ब्लॉग पे जाते है ...उसे पढ़ते है .......और बापस आ जाते है ......बिना कोई टिप्पणी किए हुए ...इससे लेखक को मन मे निराश पैदा हो जाता है....की पता नही बो यू ही इसपर अपना समय दे रहा है .............अब जो ब्लॉगर उतना मेहनत कर के लिखता है उसे न हम धनबाद देते है ...न ही कोई आलोचना करते है .......बस कुछ दिन बाद बो ....ब्लॉग बंद । 
2 बूक download करते है ...लेकिन धनबाद का एक शब्द के लिए 1 kb data खर्च नहीं कर सकते ....परिणाम ....कुछ दिन बाद ...ब्लॉग बंद। 


बाकी अगर पाठक कोई और कारण खोज सके तो मुझे खुशी होगी .....:)


Download करे पर एक कॉमेंट भी दे ...bad or good no matter.......


If i am right please shear it ...........Hindi blog Bachao Abhiyan.........

सम्राट अशोक -एक ऐतिहासिक नाटक


चक्रवर्ती सम्राट अशोक का पूरा नाम देवानांप्रिय अशोक मौर्य (राजा प्रियदर्शी देवताओं का प्रिय)। (राजकाल ईसापूर्व 273-232) प्राचीन भारत में मौर्य राजवंशका चक्रवर्ती राजा था। उसके समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में अफ़गानिस्तान तक पहुँच गया था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य से बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है।[1][2]
जीवन के उत्तरार्ध में सम्राट अशोक भगवान बुद्ध की मानवतावादी शिक्षाओं से प्रभावित होकर बौद्ध हो गये और उन्ही की स्मृति मे उन्होने एक स्तम्भ खड़ा कर दिया जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल - लुम्बिनी - मे मायादेवी मन्दिर के पास अशोक स्तम्भ के रुप मे देखा जा सकता है। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार भारत के अलावा श्रीलंका, अफ़ग़ानिस्तान, पश्चिम एशियामिस्र तथा यूनान में भी करवाया। अशोक अपने पूरे जीवन मे एक भी युद्ध नहीं हारे। सम्राट अशोक के ही समय में 23 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिसमें तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, कंधार आदि विश्वविद्यालय प्रमुख थे। इन्हीं विश्वविद्यालयों में विदेश से कई छात्र शिक्षा पाने भारत आया करते थे---

DOWNLOAD-सम्राट अशोक -एक ऐतिहासिक नाटक

राजर्षि-रवीन्द्रनाथ



राजर्षि-रवीन्द्रनाथ














रवीन्द्रनाथ ठाकुर (बंगाली: রবীন্দ্রনাথ ঠাকুর रोबिन्द्रोनाथ ठाकुर) (७ मई१८६१ – ७ अगस्त१९४१) को गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे विश्वविख्यातकविसाहित्यकारदार्शनिक और भारतीय साहित्य के एकमात्र नोबल पुरस्कार विजेता हैं। बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा थे। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान जन गण मन और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान आमार सोनार बाँग्ला गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं। राजर्षि उनका एक सुपर्शिध उपन्यास है --------


                                                 
                                  Download Link-राजर्षि

Sunday, 2 October 2016

गोरा-रवीन्द्रनाथ

इसी उपन्यास से -------------------
वर्षाराज श्रावण मास की सुबह है, बादल बरसकर छँट चुके थे, निखरी चटक धूप से कलकत्ता का आकाश चमक उठा है। सड़कों पर घोड़ा-गाड़ियाँ लगातार दौड़ रही हैं, फेरी वाले रुक-रुककर पुकार रहे हैं। जिन्हें दफ़्तर, कॉलेज और अदालत जाना है उनके लिए घर-घर मछली-भात-रोटी तैयार की जा रही है। रसोईघरों से अंगीठी जलाने का धुआँ उठ रहा है। किंतु तब भी इस इतने बड़े, पाषाण-हृदय, कामकाजी शहर कलकत्ता की सैकडों सड़कों-गलियों के भीतर स्वर्ण-रश्मियाँ आज मानो एक अपूर्व यौवन का प्रवाह लिए मचल रही है।
विनयभूषण ऐसे दिन फुरसत के समय अपने मकान की दूसरी मंज़िल के बरामदे में अकेला खड़ा नीचे राह चलने वालों को देख रहा था। उसकी कॉलेज की पढ़ाई बहुत दिन हुई पूरी हो चुकी थी, पर संसारी जीवन से अभी उसका परिचय नहीं हुआ था। सभा-समितियों के संचालन और समाचार-पत्रों में लिखने की ओर उसने मन लगाया था, किंतु उसका मन उसमें पूरा रम गया हो, ऐसा नहीं था। इसी कारण आज सबेरे 'क्या किया जाए' यह सोच न पाने से उसका मन बेचैन हो उठा था। पड़ोस के घर की छत पर न जाने क्या लिए तीन-चार कौए काँव-काँव कर रहे थे, और उसके बरामदे के एक कोने में घोंसला बनाने में व्यस्त चिड़ियों का जोड़ा चहचहाकर एक-दूसरे को उत्साह दे रहा था- ऐसे ही अनेक अस्फुट स्वर विनय के मन में एक मिश्रित भावावेग जगा रहे थे।
पास की एक दुकान के सामने गुदड़ी लपेटे हुए एक फ़कीर खड़ा होकर गाने लगा :
खाँचार भितर अचिन् पाखि कमने आसे याय
धारते पारले मनोबेड़ि दितेम पाखिर पाय।----------------