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Friday, 30 December 2016

How to Live on 24 Hours a Day

In the book, Bennett addressed the large and growing number of white-collar workers that had accumulated since the advent of the Industrial Revolution. In his view, these workers put in eight hours a day, 40 hours a week, at jobs they did not enjoy, and at worst hated. They worked to make a living, but their daily existence consisted of waking up, getting ready for work, working as little as possible during the work day, going home, unwinding, going to sleep, and repeating the process the next day. In short, he didn't believe they were really living.
Bennett addressed this problem by urging these "salarymen" to seize their extra time, and make the most of it to improve themselves. Extra time could be found at the beginning of the day, by waking up early, and on the ride to work, on the way home from work, in the evening hours, and especially during the weekends. During this time, he prescribed improvement measures such as reading great literature, taking an interest in the artsreflecting on life, and learning self-discipline.
Bennett wrote that time is the most precious of commodities. He said that many books have been written on how to live on a certain amount of money each day. And he added that the old adage "time is money" understates the matter, as time can often produce money, but money cannot produce more time. Time is extremely limited, and Bennett urged others to make the best of the time remaining in their lives.
This book has seen increased appeal in recent years due to the explosion of the self-improvement phenomenon, and the book has much relevance in today's world.


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Tuesday, 27 December 2016

देवांगना


चतुरसेन शास्त्री हिन्दी के उन साहित्यकारों में हैं जिनका लेखन-क्रम साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होने ने लगभग पचास वर्ष के लेखकीय जीवन में 177 कृतियों का सृजन किया।वे मुख्यत: अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। उन्होंने अपनी किशोरावस्था से ही हिन्दी में कहानी और गीतिकाव्य लिखना आरंभ कर दिया था। बाद में उनका साहित्य-क्षितिज फैलता गया और वे उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण, इतिहास तथा धार्मिक विषयों पर लिखने लगे।

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भूतनाथ 1 to 5


भूतनाथ, इक्कीस भाग व सात खण्डों में, ‘चन्द्रकान्ता’ व ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ की ही परम्परा और श्रृंखला का, बाबू देवकीनन्दन खत्री विरचित एक अत्यन्त लोकप्रिय और बहुचर्चित प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ में ही बाबू देवकीनन्दन खत्री के अद्भुत पात्र भूतनाथ (गदाधर सिंह) ने अपनी जीवनी (जीवन-कथा) प्रस्तुत करने का संकल्प किया था। यह संकल्प वस्तुतः लेखक का ही एक संकेत था कि इसके बाद ‘भूतनाथ’ नामक बृहत् उपन्यास की रचना होगी। देवकीनन्दन खत्री की अद्भुत कल्पना-शक्ति को शत-शत नमन है। लाखों करोड़ों पाठकों का यह उपन्यास कंठहार बना हुआ है। जब यह कहा जाता है कि ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ उपन्यासों को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी तो इस कथन में ‘भूतनाथ’ भी स्वतः सम्मिलित हो जाता है क्योंकि ‘भूतनाथ’ उसी तिलिस्मी और ऐयारी उपन्यास परम्परा ही नहीं, उसी श्रृंखला का प्रतिनिधि उपन्यास है। कल्पना की अद्भुत उड़ान और कथारस की मार्मिकता इसे हिन्दी साहित्य की विशिष्ट रचना सिद्ध करती है। मनोरंजन का मुख्य उद्देश्य होते हुए भी इसमें बुराई और असत् पर अच्छाई और सत् की विजय का शाश्वत विधान ऐसा है जो इसे एपिक नॉवल (Epic Novel) यानी महाकाव्यात्मक उपन्यासों की कोटि में लाता है। ‘भूतनाथ’ का यह शुद्ध पाठ-सम्पादन और भव्य नवप्रकाशन, आशा है, पाठकों को विशेष रुचिकर प्रतीत होगा--------------

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Tuesday, 20 December 2016

भारत के महान योगी


आधुनिक विज्ञान सच्चे आत्म, आत्मा के लिए ध्यान का भुगतान नहीं किया।इसलिए, योग पैसे लाने, एक बड़ा व्यापार बन गया है।बुनियादी आध्यात्मिक सिद्धांतों (यम और piyama) सफल नहीं होगा, लेकिन चिंता और परेशानी को देख बिना अभ्यास करें।लेकिन जल्द ही सब कुछ बदल जाएगा।दस साल lzheyoga दुनिया में पनपने, और फिर एक साबुन बुलबुले की तरह फट जाएगा।असली और यह चाहिए रूप में देखा जाएगा कि जब - केवल अपने असली अनुयायियों के लिए शिक्षा के विज्ञान के रूप में।
बहुत मुश्किल चिकित्सकों के साथ बड़े शहर में जीवन की लय गठबंधन करने के लिए।सच योग पता करने के लिए करना चाहता है जो किसी के लिए क्या करना है?
संभव है।अतीत के सभी महान योगी है कि बस - वे परिवार, बच्चों, रोजमर्रा की चिंता नहीं थी, लेकिन साधु बने रहे और योग का अभ्यास किया।आज हम बाधाओं और सम्मेलनों, vanities की एक किस्म फंस, खाली चीजों पर ऊर्जा का एक बहुत खर्च करते हैं।लेकिन यह सब मुश्किल नहीं है - सच तो यह है, लेकिन यह इस दुनिया में स्थिर है, लेकिन यह बहुत आसान है और बहुत सुंदर है।इसे प्राप्त करने के लिए, यह डर हो, और बताया, मुक्त, जीने के लिए, आसान अनावश्यक संलग्नक त्याग करने के लिए आवश्यक नहीं है।

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भीष्म

भीष्म अथवा भीष्म पितामह महाभारत के एक पात्र हैं। भीष्म पितामह गंगा तथा शान्तनु के पुत्र थे। ये महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण पात्रों में से एक थे। भगवान परशुराम के शिष्य देवव्रत अपने समय के बहुत ही विद्वान व शक्तिशाली पुरुष थे। महाभारत के प्रसंगों के अनुसार हर तरह की शष्त्र विद्या के ज्ञानी देवव्रत को किसी भी तरह के युद्ध में हरा पाना असंभव था। उन्हें संभवत: उनके गुरु परशुराम ही हरा सकते थे लेकिन इन दोनों के बीच हुआ युद्ध पूर्ण नहीं हुआ और दो अति शक्तिशाली योद्धाओं के लड़ने से होने वाले नुकसान को आंकते हुए इसे भगवान शिव द्वारा रोक दिया गया।
इन्हें अपनी उस भीष्म प्रतिज्ञा के लिये भी सर्वाधिक जाना जाता है जिसकी वजह से इन्होंने राजा बन सकने के बावजूद आजीवन हस्तिनापुर के सिंहासन के संरक्षक की भूमिका निभाई। इन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया व ब्रह्मचारी रहे। इसी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए महाभारत मे उन्होने कौरवों की तरफ से युद्ध मे भाग लिया था। इन्हें इच्छा मृत्यु का वरदाऩ था। यह कौरवों के पहले प्रधान सेनापति थे। जो सर्वाधिक दस दिनो तक कौरवों के प्रधान सेनापति रहे थे।[1] महाभारत युद्ध खत्म होने पर इन्होंने गंगा किनारे इच्छा मृत्यु ली।

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Monday, 19 December 2016

जातक कथाएँ

जातक-कथाएँ भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों से सम्बन्धित हैं। बोधिसत्व की चर्याओं का उनमें वर्णन है। अतः वे सभी प्रायः उपदेशात्मक है। परन्तु उनका साहित्यिक रूप भी निखरा हुआ है। उपदेशात्मक होते हुए भी वे पूरे अर्थों में कलात्मक है। जातक के आदि में निदान-कथा (उपोद्घात) है, जिसमे भगवान् बुद्ध के पहले 24 बुद्धों के विवरण के साथ-साथ भगवान गौतम बुद्ध की जीवनी लेतवन विहार के दान की स्वीकृति तक दी गई है। कुछ जातक कथाओं का सारांश तथा उनकी विषय-वस्तु का रूप निम्नलिखित इस प्रकार स्पष्ट है।
अपण्णक जातक व्यापार के लिए जाते हुए दो बनजारों की कथा है। एक दैत्यों के हाथ मारा गया, दूसरा बुद्धिमान होने के कारण अपने पाँच सौ साथियों सहित सकुशल घर लौट आया।
कण्डिन जातक (कण्डि जातक-13) कामुकता के कारण एक मृग शिकारी के हाथों मारा गया।
मखादेव जातक (9) - सिर के सफेद बाल देखकर राजा सिंहासन छोड़ कर वन चला गया।
सम्मोदमान जातक (33) - एक मत बटेरों का चिड़ीमार कुछ न बिगाड सका, परन्तु जब उनमें फूट पड़ गई तो सभी चिड़िमार के जाल में फँस गये।
तित्तिर जातक (37)-बन्दर, हाथी और तित्तिर ने आपस में विचार कर निश्चय किया कि जो ज्येष्ठ हो उसका आदर करना चाहिए।
बक जातक (9)-बगुले ने मछलियों को धोखा दे देकर एक-एक को ले जाकर मार खाया। अंत में वह एक केकड़े के हाथ से मारा गया।
कण्ह जातक (29)-एक बैल ने अपनी बु़ढ़ या माँ को जिसने उसे पाला था, मजदूरी से कमाकर हक हजार कार्षापण ला कर दिये।
वेकुक जातक (43) - तपस्वी ने साँप के बच्चे को पाला जिसने उसे डँस कर मार डाला।
रोहिणी जातक (45)-रोहिणी नामक दासी ने अपनी माता के सिर की मक्खियाँ हटाने के लिए जाकर माता को मार डाला।
वानरिन्द जातक (57)-मगरमच्छ अपनी स्त्री के कहने से वानर का हृदय चाहता था। वानर अपनी चतुरता से बच निकला।
कुद्दाल जातक (70)-कुद्दाल पंडित कुद्दाल के मोह में पड़कर छह बार गृहस्थ और प्रव्रजित हुआ।
सीलवनागराज जातक (72)-वन में रास्ता भूले हुए एक आदमी की हाथी ने जान बचाई।
खरस्सर जातक (79)-गाँव का मुखिया चोरों से मिलकर गाँव लुटवाता था।
नामसिद्धि जातक (97)-पापक नामक विद्यार्थी एक अच्छे नाम की तलाश में बहुत घूमा। अन्त में यह समझकर कि नाम केवल बुलाने के लिए होता है वह लौट आया।
अकालरावी जातक (119)-असमय शोर मचाने वाला मुर्गा विद्यार्थियों द्वारा मार डाला गया।
विळारवत जातक (128)- धर्म का ढोंग कर गीदड़ चूहों को खाता था।
गोध जातक (141)-गोह की गिरगिट के साथ मित्रता उसके कुल विनाश का कारण हुई।
विरोजन जातक (143)-गीदड़ ने शेर की नकल करके पराक्रम दिखाना चाहा। हाथी ने उसे पाँव से रौंद कर उस पर लीद कर दी।
गुण जातक (157)-दलदल में फसे सिंह को सियार ने बाहर निकाला।
मक्कट जातक (173)-बन्दर तपस्वी का वेश बना कर आया।
आदिच्चुपट्ठान जातक (175)-बन्दर ने सूर्य की पूजा करने का ढोंग बनाया।
कच्छप जातक (178)-जन्मभूमि के मोह के कारण कछुए की जान गई।
गिरिदत्त जातक(184) -शिक्षक के लँगड़ा होने के कारण घोड़ा लँगड़ा कर चलने लगा।
सीहचम्म जातक (189)-सिंह की खाल पहनकर गधा खेत चरता रहा, किन्तु बोलने पर मारा गया।
महापिंगल जातक (240)-राजा मर गया फिर भी द्वारपाल को भय था कि अत्याचारी राजा यमराज के पास से कहीं लौट न आवे।
आरामदूसक जातक (46 तथा 28)-बन्दरों ने पौधों को उखाड़ कर उनकी जड़ें नाप-नाप पर पानी सींचा।
कुटिदूसक जातक (321)-बन्दर ने बये के सदुपदेश को सुन कर उसका घोसलां नोच डाला।
बावेरू जातक (339)-बावेरू राष्ट्र में कौआ सौ कार्षापण में और मोर एक हजार कार्षापण में बिका।
वानर जातक (342)-मगरमच्छनी ने बन्दर का हृदय-मांस खाना चाहा।
सन्धिभेद जातक - गीदड़ ने चुगली कर सिंह और बैल को परस्पर लड़वा दिया आदि आदि।
वानरिन्द जातक(57) विलारवत जातक(128) , सीहचम्म जातक(189), सुंसुमार जातक(208), और सन्धिभेद जातक(349) आदि। जातक कथाएँ पशु-कथाएँ है। ये कथाएँ अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विशेषतः इन्हीं कथाओं का गमन विदेशों में हुआ है। व्यंग्य का पुट भी यहाँ अपने काव्यात्मक रूप से दृष्टिगोचर होता है। प्रायः पशुओं की तुलना में मनुष्यों को हीन दिखाया गया है। एक विशेष बात यह है कि व्यंग्य किसी व्यक्ति पर न कर सम्पूर्ण जाति पर किया गया है।
एक बन्दर कुछ दिनों के लिए मनुष्यों के बीच आकर रहा। बाद में अपने साथियों के पास जाता है। साथी पूछते है-‘‘मनुष्यों के समाज में रहे है। उनका बर्ताव जानते हैं। हमें भी कहें। हम उसे सुनना चाहते हैं।‘‘ मनुष्यों की करनी मुझसे मत पूछो। कहे, हम सुनना चाहते हैं। बन्दर ने कहना शुरू किया,‘‘ हिरण्य मेरा! सोना मेरा! यही रात दिन वे चिल्लाते है। घर में दो लोग रहते हैं। एक को मूँछ नहीं होती। उसके लम्बे केश होते है, वेणी होती है और कानों में छेद होते हैं। उसे बहुत धन से खरीदा जाता है। वह सब जनों को कष्ट देता है।‘‘ बन्दर कह ही रहा था कि उसके साथियों ने कान बन्द कर लिए‘‘ मत कहें मत कहें‘‘। इस प्रकार के मधुर और अनूठे व्यंग्य के अनेकों चित्र जातक में मिलेगें। विशेषतः मनुष्य के अहंकार के मिथ्यापन के सम्बन्ध में मर्मस्पर्शी व्यंग्य। महापिंगल जातक(240) में, ब्राह्मणों की लोभवृत्ति के सम्बन्ध में सिगाल जातक(113) में एक अति बुद्धिमान तपस्वी के सम्बन्ध में, अवारिय जातक (376)में है। सब्बदाठ नामक श्रृंगाल सम्बन्धी हास्य और विनोद भी बड़ा मधुर है (सब्बदाठ जातक 241) और इसी प्रकार मक्खी हटाने के प्रयत्न में दासी का मूसल से अपनी माता को मार देना (रोहिणी जातक 45) और बन्दरों का पौधों का उखाड़ कर पानी देना भी मधुर विनोद से भरे हुए हैं।
इसी प्रकार रोमांच के रूप में महाउम्मग्ग जातक (546) आदि नाटकीय आख्यान के रूप में छदन्त जातक (514) आदि, एक ही विषय पर कहे हुए कथनों के संकलन के रूप में कुणाल जातक (536) आदि, संक्षिप्त नाटक के रूप में उम्मदन्ती जातक (527) आदि, नीतिपरक कथाओं के रूप में गुण जातक (157) आदि, पूरे महाकाव्य के रूप में पेस्सन्तर जातक (547) आदि एवं ऐतिहासिक संवादों के रूप में संकिच्च जातक (530) और महानारदकस्सप जातक (544) आदि। अनेक प्रकार के वर्णनात्मक आख्यान जातक में भरे पड़े हैं, जिनकी साहित्यिक विशेषताओं का उल्लेख यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त रूप में भी नहीं किया जा सकता।

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Saturday, 17 December 2016

दर्पण के व्यक्ति-विष्णु प्रभाकर

विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, सन 1912 को मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इन्हें इनके एक अन्य नाम 'विष्णु दयाल' से भी जाना जाता है। इनके पिता का नाम दुर्गा प्रसाद था, जो धार्मिक विचारधारा वाले व्यक्तित्व के धनी थे। प्रभाकर जी की माता महादेवी पढ़ी-लिखी महिला थीं, जिन्होंने अपने समय में पर्दाप्रथा का घोर विरोध किया था। प्रभाकर जी की पत्नी का नाम सुशीला था।

शिक्षा

विष्णु प्रभाकर की आरंभिक शिक्षा मीरापुर में हुई थी। उन्होंने सन 1929 में चंदूलाल एंग्लो-वैदिक हाई स्कूल, हिसार से मैट्रिक की परीक्षा पास की। इसके उपरांत नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से 'भूषण', 'प्राज्ञ', 'विशारद' और 'प्रभाकर' आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण कीं। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से ही बी.ए. की डिग्री भी प्राप्त की थी।

व्यवसाय

प्रभाकर जी के घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। यही कारण था कि उन्हें काफ़ी कठिनाइयों और समस्याओं का सामना करना पड़ा था। वे अपनी शिक्षा भली प्रकार से प्राप्त नहीं कर पाये थे। अपनी घर की परेशानियों और ज़िम्मेदारियों के बोझ से उन्होंने स्वयं को मज़बूत बना लिया। उन्होंने चतुर्थ श्रेणी की एक सरकारी नौकरी प्राप्त की। इस नौकरी के जरिए पारिश्रमिक रूप में उन्हें मात्र 18 रुपये प्रतिमाह का वेतन प्राप्त होता था। विष्णु प्रभाकर जी ने जो डिग्रियाँ और उच्च शिक्षा प्राप्त की, तथा अपने घर-परिवार की ज़िम्मेदारियों को पूरी तरह निभाया, वह उनके अथक प्रयासों का ही परिणाम था।

विष्णु प्रभाकर जी की प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं[1]-
  1. कहानी संग्रह - 'संघर्ष के बाद', 'धरती अब भी धूम रही है', 'मेरा वतन', 'खिलौने', 'आदि और अन्त', 'एक आसमान के नीचे', 'अधूरी कहानी', 'कौन जीता कौन हारा', 'तपोवन की कहानियाँ', 'पाप का घड़ा', 'मोती किसके'।
  2. बाल कथा संग्रह - 'क्षमादान', 'गजनन्दन लाल के कारनामे', 'घमंड का फल', 'दो मित्र', 'सुनो कहानी', 'हीरे की पहचान'।

  1. उपन्यास -ढलती रात  • निशिकांत  • तट के बंधन  • स्वप्नमयी  • दर्पण का व्यक्ति  • परछाईं  • कोई तो  • अर्धनारीश्वर  • संकल्प ', 'स्वप्नमयी', 'अर्द्धनारीश्वर', 'धरती अब भी घूम रही है', 'पाप का घड़ा', 'होरी', 'कोई तो', 'निशिकान्त', 'तट के बंधन', 'स्वराज्य की कहानी'।

  1. आत्मकथा - 'क्षमादान' और 'पंखहीन' नाम से उनकी आत्मकथा 3 भागों में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो चुकी है। 'और पंछी उड़ गया', 'मुक्त गगन में'।
  2. नाटक - 'सत्ता के आर-पार', 'हत्या के बाद', 'नवप्रभात', 'डॉक्टर', 'प्रकाश और परछाइयाँ', 'बारह एकांकी', अब और नही, टूट्ते परिवेश, गान्धार की भिक्षुणी और 'अशोक'
  3. जीवनी - 'आवारा मसीहा', 'अमर शहीद भगत सिंह'।
  4. यात्रा वृतान्त - 'ज्योतिपुन्ज हिमालय', 'जमुना गंगा के नैहर में', 'हँसते निर्झर दहकती भट्ठी'।
  5. संस्मरण - 'हमसफर मिलते रहे'।
  6. कविता संग्रह - ‘चलता चला जाऊंगा’ (एकमात्र कविता संग्रह)।


DOWNLOAD- 1.  दर्पण के व्यक्ति
                          2. दर्पण के व्यक्ति

Saturday, 3 December 2016

यजुर्वेद -हिन्दी

यजुर्वेद हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्दू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के बाद दूसरा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है। यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’' कहा जाता है। यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ॠग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है।[1] इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं : दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल यजुर्वेद शाखा।
जहां ॠग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदेश में हुई।[2] कुछ लोगों के मतानुसार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.पू. का माना जाता है।

यजुस के नाम पर ही वेद का नाम यजुस+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है। यज् का अर्थ समर्पण से होता है । पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्धयोग, इंद्रिय निग्रह [3] इत्यादि के हवन को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है ।
इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है। यजुर्वेद की संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरंभिक सदियों में लिखी गईं थी।[1] इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है। उनके समय की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है। यजुर्वेद संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड आयोजन हेतु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है। इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण हैः
ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है, जो आज भी जन-जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है।[4] संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र यजुर्वेद के ही हैं।[5]

राष्ट्रोत्थान हेतु प्रार्थना

ओ३म् आ ब्रह्मन् ब्राह्मणों ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूरऽइषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढ़ाऽनड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे-निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो नऽओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ॥ -- यजुर्वेद २२, मन्त्र २२
अर्थ-
ब्रह्मन् ! स्वराष्ट्र में हों, द्विज ब्रह्म तेजधारी ।
क्षत्रिय महारथी हों, अरिदल विनाशकारी ॥
होवें दुधारू गौएँ, पशु अश्व आशुवाही ।
आधार राष्ट्र की हों, नारी सुभग सदा ही ॥
बलवान सभ्य योद्धा, यजमान पुत्र होवें ।
इच्छानुसार वर्षें, पर्जन्य ताप धोवें ॥
फल-फूल से लदी हों, औषध अमोघ सारी ।
हों योग-क्षेमकारी, स्वाधीनता हमारी ॥


यजुर्वेदाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजुर्वेद और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शुक्ल यजुर्वेद ही प्रमुख हैं।
संहिताएं
वर्तमान में कृष्ण यजुर्वेद की शाखा में ४ संहिताएँ -तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं। शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं में दो प्रधान संहिताएँ- १. मध्यदिन संहिता और २. काण्व संहिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं। आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजुर्वेद मध्यदिन संहिता ही है। इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई भागों में यागादि अनुष्ठान कर्मों में प्रयुक्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं। विश्वविख्यात गायत्री मंत्र (३६.३) तथा महामृत्युञ्जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है।
शाखाएं
यजुर्वेद कर्मकाण्ड से जुडा हुआ है। इसमें विभिन्न यज्ञों (जैसे अश्वमेध) का वर्णन है। यजुर्वेद पाठ अध्वुर्य द्वारा किया जाता है। यजुर्वेद ५ शाखाओ मे विभक्त् है-
  1. काठक
  2. कपिष्ठल
  3. मैत्रियाणी
  4. तैतीरीय
  5. वाजसनेयी
कहा जाता है कि वेद व्यास के शिष्य वैशंपायन के २७ शिष्य थे, इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षुब्ध हो गए। इस विवाद के देखकर वैशंपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई विद्या वापस मांगी। इस पर क्रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजुर्वेद का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे। इससे कृष्ण यजुर्वेद का जन्म हुआ। यह देखकर दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चुग लिया और इससे तैत्तरीय संहिता का जन्म हुआ।
यजुर्वेद के भाष्यकारों में उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्लेखनीय हैं। इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से संबंध दर्शाते हैं। शृंगेरी के शंकराचार्यों में भी यजुर्वेद भाष्यों की विद्वत्ता की परंपरा रही है।

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Wednesday, 30 November 2016

चन्द्रशेखर वेंकटरमन

 

सर चंद्रशेखर वेंकटरमन

जन्म7 नवम्बर 1888
तिरुचिरापल्लीतमिल नाडु
मृत्यू21 नवम्बर 1970 (उम्र 82)
बंगलुरुकर्नाटकभारत
राष्ट्रीयताFlag of India.svg भारत
क्षेत्रभौतिकी
संस्थाएँभारतीय वित्त विभाग
इंडियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस
भारतीय विज्ञान संस्थान
मातृसंस्थाप्रेसीडेंसी कालिज
डॉक्टरेट छात्रजी एन रामचंद्रन
प्रसिद्ध कार्यरमण इफेक्ट
पुरस्कारनाइट बैचेलर (१९२९)
भौतिकी में नोबल पुरस्कार (१९३०)
भारत रत्न
लेनिन शांति पुरस्कार

DOWNLOAD- चन्द्रशेखर वेंकटरमन

Sunday, 27 November 2016

विक्रमादित्य की गौरव गाथा-ऐतिहासिक उपन्यास-आचार्य श्री देवेन्द्र मुनी


भारत में विक्रमादित्य अत्यन्त प्रसिध्द , न्याय प्रिय , दानी , परोपकारी और सर्वांग सदाचारी राजा हुए हैं | स्कन्ध पुराण और भविष्य पुराण ,कथा सप्तशती , वृहत्कथा और द्वात्रिश्न्त्युत्तालिका,सिंहासन बत्तीसी , कथा सरितसागर , पुरुष परीक्षा , शनिवार व्रत की कथा आदि ग्रन्थों में इनका चरित्र आया है | बूंदी के सुप्रशिध्द इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कृत वंश भास्कर में परमार वंशीय राजपूतों का सजीव वर्णन मिलता है इसी में वे लिखते हैं “परमार वंश में राजा गंधर्वसेन से भर्तहरी और विक्रमादित्य नामक तेजस्वी पुत्र हुए, जिसमें विक्रमादित्य नें धर्मराज युधिष्ठर के कंधे से संवत का जुड़ा उतार कर अपने कंधे पर रखा | कलिकाल को अंकित कर समय का सुव्यवस्थित गणितीय विभाजन का सहारा लेकर विक्रम संवत चलाया |” | वीर सावरकर ने इस संदर्भ में लिखा है कि एक इरानी जनश्रुति है कि ईरान के राजा मित्रडोट्स जो तानाशाह हो अत्याचारी हो गया था का वध विक्रम दित्य ने किया था और उस महान विजय के कारण विक्रम संवत प्रारम्भ हुआ |संवत कौन प्रारंभ कर सकता है।
यूं तो अनेकानेक संवतों का जिक्र आता है और हर संवत भारत में चैत्र प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है | मगर अपने नाम से संवत हर कोई नहीं चला सकता , स्वंय के नाम से संवत चलने के लिए यह जरुरी है कि उस राजा के राज्य में कोई भी व्यक्ति / प्रजा कर्जदार नहीं हो ! इसके लिए राजा अपना कर्ज तो माफ़ करता ही था तथा जनता को कर्ज देने वाले साहूकारों का कर्ज भी राज कोष से चुका कर जनता को वास्तविक कर्ज मुक्ति देता था | अर्थात संवत नामकरण को भी लोक कल्याण से जोड़ा गया था ताकि आम जनता का परोपकार करने वाला ही अपना संवत चला सके | सुप्रशिध्द इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण कि अभिव्यक्ति से तो यही लगता है कि सम्राट धर्मराज युधिष्ठर के पश्चात विक्रमादित्य ही वे राजा हुए जिन्होनें जनता का कर्ज (जुड़ा ) अपने कंधे पर लिया | इसी कर्ण उनके द्वारा प्रवर्तित संवत सर्वस्वीकार्य हुआ |
४००० वर्ष पुरानी उज्जयिनी …
अवंतिका के नाम से सुप्रसिध्द यह नगर श्री कृष्ण के बाल्यकाल का शिक्षण स्थल रहा है , संदीपन आश्रम यहीं है जिसमें श्री कृष्ण, बलराम और सुदामा का शिक्षण हुआ था | अर्थात आज से कमसे कम पांच हजार वर्षों से अधिक पुरानी यह नगरी है | दूसरी प्रमुख बात यह है कि अग्निवंश के परमार राजाओ कि एक शाखा चन्द्र प्र्ध्दोत नामक सम्राट ईस्वी सन के ६०० वर्ष पूर्व सत्तारूढ़ हुआ अर्थात लगभग २६०० वर्ष पूर्व और उसके वंशजों नें तीसरी शताव्दी तक राज्य किया | इसका अर्थ यह हुआ कि ९०० वर्षो तक परमार राजाओं का मालवा पर शासन रहा | तीसरी बात यह है कि कार्बन डेटिंग पध्दति से उज्जेन नगर कि आयु ईस्वी सन से २००० वर्ष पुरानी सिध्द हुई है , इसका अर्थ हुआ कि उज्जेन नगर का अस्तित्व कम से कम ४००० वर्ष पूर्व का है | इन सभी बातों से सवित होता है कि विक्रमादित्य पर संदेह गलत है |
नवरत्न …
सम्राट विक्रमादित्य कि राज सभा में नवरत्न थे .., ये नो व्यक्ति तत्कालीन विषय विशेषज्ञ थे | संस्कृत काव्य और नाटकों के लिए विश्व प्रशिध्द कालिदास , शब्दकोष (डिक्सनरी) के निर्माता अमर सिंह , ज्योतिष में सूर्य सिध्दांत के प्रणेता तथा उस युग के प्रमुख ज्योतिषी वराह मिहिर थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी | आयुर्वेद के महान वैध धन्वन्तरी , घटकर्पर , महान कूटनीतिज्ञ बररुची जैन , बेताल भट्ट , संकु और क्षपनक आदि द्विव्य विभूतियाँ थीं | बाद में अनेक राजाओं ने इसका अनुशरण कर विक्रमादित्य पदवी धारण की एवं नवरतनों को राजसभा में स्थान दिया | इसी वंश के राजा भोज से लेकर अकबर तक की राजसभा में नवरतनों का जिक्र है |
वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे. माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना “नीति -प्रदीप” (Niti-pradīpa सचमुच “आचरण का दीया”) का श्रेय दिया है.
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
धन्वन्तरिः क्षपणको मरसिंह शंकू वेताळभट्ट घट कर्पर कालिदासाः।
ख्यातो वराह मिहिरो नृपते स्सभायां रत्नानि वै वररुचि र्नव विक्रमस्य।।
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Saturday, 26 November 2016

पतिता -चतुरसेन शाशत्री


आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त1891 को चांदोख ज़िला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में इनकी प्रतिष्ठा है। चतुरसेन शास्त्री की यह विशेषता है कि उन्होंने उपन्यासों के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा है, कहानियाँ लिखी हैं, जिनकी संख्या प्राय: साढ़े चार सौ है। गद्य-काव्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर भी उन्होंने अधिकारपूर्वक लिखा है।


इनके प्रमुख उपन्यासों के नाम हैं-
  1. वैशाली की नगरवधू
  2. वयं रक्षाम
  3. सोमनाथ
  4. मन्दिर की नर्तकी
  5. रक्त की प्यास
  6. सोना और ख़ून (चार भागों में 1...2...3....4.)
  7. आलमगीर
  8. सह्यद्रि की चट्टानें
  9. अमर सिंह
  10. ह्रदय की परख


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Friday, 18 November 2016

तात्या टोपे

तात्या टोपे (1814 - 18 अप्रैल 1859)) भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के एक प्रमुख सेनानायक थे। सन १८५७ के महान विद्रोह में उनकी भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण, प्रेरणादायक और बेजोड़ थी।
सन् सत्तावन के विद्रोह की शुरुआत १० मई को मेरठ से हुई थी। जल्दी ही क्रांति की चिन्गारी समूचे उत्तर भारत में फैल गयी। विदेशी सत्ता का खूनी पंजा मोडने के लिए भारतीय जनता ने जबरदस्त संघर्ष किया। उसने अपने खून से त्याग और बलिदान की अमर गाथा लिखी। उस रक्तरंजित और गौरवशाली इतिहास के मंच से झाँसी की रानी लक्ष्मीबाईनाना साहब पेशवाराव साहबबहादुरशाह जफर आदि के विदा हो जाने के बाद करीब एक साल बाद तक तात्या विद्रोहियों की कमान संभाले रहे।

तात्या का जन्म महाराष्ट्र में नासिक के निकट पटौदा जिले के येवला नामक गाँव में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता पाण्डुरंग राव भट्ट़(मावलेकर), पेशवा बाजीराव द्वितीय के घरू कर्मचारियों में से थे। बाजीराव के प्रति स्वामिभक्त होने के कारण वे बाजीराव के साथ सन् १८१८ में बिठूरचले गये थे। तात्या का वास्तविक नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था, परंतु लोग स्नेह से उन्हें तात्या के नाम से पुकारते थे। तात्या का जन्म सन् १८१४ माना जाता है। अपने आठ भाई-बहनों में तात्या सबसे बडे थे।
कुछ समय तक तात्या ने ईस्ट इंडिया कम्पनी में बंगाल आर्मी की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया था, परन्तु स्वतंत्र चेता और स्वाभिमानी तात्या के लिए अंग्रेजों की नौकरी असह्य थी। इसलिए बहुत जल्दी उन्होंने उस नौकरी से छुटकारा पा लिया और बाजीराव की नौकरी में वापस आ गये। कहते हैं तोपखाने में नौकरी के कारण ही उनके नाम के साथ टोपे जुड गया, परंतु कुछ लोग इस संबंध में एक अलग किस्सा बतलाते हैं। कहा जाता है कि बाजीराव ने तात्या को एक बेशकीमती और नायाब टोपी दी थी। तात्या इस टोपे को बडे चाव से पहनते थे। अतः बडे ठाट-बाट से वह टोपी पहनने के कारण लोग उन्हें तात्या टोपी या तात्या टोपे के नाम से पुकारने लगे।वह आजन्म अविवाहित रहे।

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Wednesday, 16 November 2016

भगवत पुराण

भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद्भागवतम् या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य वर्ण्य विषय भक्ति योग है, जिसमे कृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इसके अतिरिक्त इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरुपण भी किया गया है। परंपरागत तौर पर इस पुराण का रचयिता वेद व्यास को माना जाता है।
श्रीमद्भागवत भारतीय वाङ्मय का मुकुटमणि है। भगवान शुकदेव द्वारा महाराज परीक्षित को सुनाया गया भक्तिमार्ग तो मानो सोपान ही है। इसके प्रत्येक श्लोक में श्रीकृष्ण-प्रेमकी सुगन्धि है। इसमें साधन-ज्ञान, सिद्धज्ञान, साधन-भक्ति, सिद्धा-भक्ति, मर्यादा-मार्ग, अनुग्रह-मार्ग, द्वैत, अद्वैत समन्वय के साथ प्रेरणादायी विविध उपाख्यानों का अद्भुत संग्रह है।[1]
अष्टादश पुराणों में भागवत नितांत महत्वपूर्ण तथा प्रख्यात पुराण है। पुराणों की गणना में भागवत अष्टम पुराण के रूप में परिगृहीत किया जाता है (भागवत 12.7.23)। भागवत पुराण में महर्षि सूत गोस्वामी उनके समक्ष प्रस्तुत साधुओं को एक कथा सुनाते हैं। साधु लोग उनसे विष्णु के विभिन्न अवतारों के बारे में प्रश्न पूछते हैं। सुत गोस्वामी कहते हैं कि यह कथा उन्होने एक दूसरे ऋषि शुकदेव से सुनी थी। इसमें कुल बारह सकन्ध हैं। प्रथम काण्ड में सभी अवतारों को सारांश रूप में वर्णन किया गया है।
आजकल 'भागवत' आख्या धारण करनेवाले दो पुराण उपलब्ध होते हैं :
श्रीमद्भागवत भक्तिरस तथा अध्यात्मज्ञान का समन्वय उपस्थित करता है। भागवत निगमकल्पतरु का स्वयंफल माना जाता है जिसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी तथा ब्रह्मज्ञानी महर्षि शुक ने अपनी मधुर वाणी से संयुक्त कर अमृतमय बना डाला है। स्वयं भागवत में कहा गया है-
सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते ।
तद्रसामृततृप्तस्य नान्यत्र स्याद्रतिः क्वचित् ॥
श्रीमद्भाग्वतम् सर्व वेदान्त का सार है। उस रसामृत के पान से जो तृप्त हो गया है, उसे किसी अन्य जगह पर कोई रति नहीं हो सकती। (अर्थात उसे किसी अन्य वस्तु में आनन्द नहीं आ सकता।)

भागवत के देशकाल का यथार्थ निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। एकादश स्कंध में (5.38-40) कावेरी, ताम्रपर्णी, कृतमाला आदि द्रविड़देशीय नदियों के जल पीनेवाले व्यक्तियों को भगवान्‌ वासुदेव का अमलाशय भक्त बतलाया गया है। इसे विद्वान्‌ लोग तमिल देश के आलवारों (वैष्णवभक्तों) का स्पष्ट संकेत मानते हैं। भागवत में दक्षिण देश के वैष्णव तीर्थों, नदियों तथा पर्वतों के विशिष्ट संकेत होने से कतिपय विद्वान्‌ तमिलदेश को इसके उदय का स्थान मानते हैं।
काल के विषय में भी पर्याप्त मतभेद है। इतना निश्चित है कि बोपदेव (13वीं शताब्दी का उत्तरार्ध, जिन्होंने भागवत से संबद्ध 'हरिलीलामृत', 'मुक्ताफल' तथा 'परमहंसप्रिया' का प्रणयन किया तथा जिनके आश्रयदाता, देवगिरि के यादव राजा थी), महादेव (सन्‌ 1260-71) तथा राजा रामचंद्र (सन्‌ 1271-1309) के करणाधिपति तथा मंत्री, प्रख्यात धर्मशास्त्री हेमाद्रि ने अपने 'चतुर्वर्ग चिंतामणि' में भागवत के अनेक वचन उधृत किए हैं, भागवत के रचयिता नहीं माने जा सकते। शंकराचार्य के दादा गुरु गौडपादाचार्य ने अपने 'पंचीकरणव्याख्या' में 'जगृहे पौरुषं रूपम्‌' (भा. 1.3.1) तथा 'उत्तरगीता टीका' में 'श्रेय: स्रुतिं भक्ति मुदस्य ते विभो' (भा. 10.14.4) भागवत के दो श्लोकों को उद्धृत किया है। इससे भागवत की रचना सप्तम शती से अर्वाचीन नहीं मानी जा सकती।