चतुरसेन शास्त्री हिन्दी के उन साहित्यकारों में हैं जिनका लेखन-क्रम साहित्य की किसी एक विशिष्ट विधा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन्होने ने लगभग पचास वर्ष के लेखकीय जीवन में 177 कृतियों का सृजन किया।वे मुख्यत: अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। उन्होंने अपनी किशोरावस्था से ही हिन्दी में कहानी और गीतिकाव्य लिखना आरंभ कर दिया था। बाद में उनका साहित्य-क्षितिज फैलता गया और वे उपन्यास, नाटक, जीवनी, संस्मरण, इतिहास तथा धार्मिक विषयों पर लिखने लगे।
शास्त्रीजी अध्येता ही नहीं, कुशल चिकित्सक भी थे। उन्होंने आयुर्वेद संबंधी लगभग एक दर्जन ग्रंथ लिखे। व्यवसाय से वैद्य होने पर भी उन्होंने साहित्य-सर्जन में गहरी रुचि बनाए रखी।
शास्त्रीजी अपनी शैली के अनोखे लेखक थे, जो अपने कथा-साहित्य में भी इतिहास, राजनीति, धर्मशास्त्र, समाजशास्त्र और युगबोध से सम्पृक्त विविध विषयों को दृष्टि में रखकर लिखते थे।
उन्होंने उपन्यासों के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा है। उन्होने प्राय: साढ़े चार सौ कहानियाँ लिखीं हैं। गद्य-काव्य, धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर भी उन्होंने अधिकारपूर्वक लिखा है। रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे जो कि उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुए।
उनकी प्रमुख कृतियां हैं-
वैशाली की नगरवधू , सोमनाथ, वयंरक्षामः, गोली, सोना और खून (तीन खंड), रक्त की प्यास, हृदय की प्यास, अमर अभिलाषा, नरमेघ, अपराजिता, धर्मपुत्र (उपन्यास) राजसिंह, छत्रसाल, गांधारी, श्रीराम, अमरसिंह, उत्सर्ग, क्षमा (नाटक), हृदय की परख, अंतस्तल, अनुताप, रूप, दुःख, मां गंगी, अनूपशहर के घाट पर, चित्तौड़ के किले में, स्वदेश (गद्यकाव्य) मेरी आत्मकहानी (आत्मकथा), हिन्दी भाषा और साहित्य का इतिहास (सात खंड), अक्षत, रजकण, वीर बालक, मेघनाद, सीताराम, सिंहगढ़ विजय, वीरगाथा, लम्बग्रीव, दुखवा मैं कासों कहूं सजनी, कैदी, आदर्श बालक, सोया हुआ शहर, कहानी खत्म हो गई, धरती और आसमान, मेरी प्रिय कहानियां (कहानी संग्रह), आरोग्य शास्त्र, अमीरों के रोग, छूत की बीमारियां, सुगम चिकित्सा, काम-कला के भेद (आयुर्वेदिक ग्रंथ), सत्याग्रह और असहयोग, गोलसभा, तरलाग्नि, गांधी की आंधी (पराजित गांधी), मौत के पंजे में जिन्दगी की कराह (राजनीति), राधाकृष्ण, पांच एकांकी, प्रबुद्ध, सत्यव्रत हरिश्चंद्र, अष्ट मंगल (एकांकी संग्रह )।
इनके अतिरिक्त शास्त्रीजी ने प्रौढ़ शिक्षा, स्वास्थ्य, धर्म, इतिहास, संस्कृति और नैतिक शिक्षा पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं।
यह प्रसिद्ध क़िला महाराष्ट्र के प्रख्यात दुर्गों में से एक था। यह पूना से लगभग 17 मील दूर नैऋत्य कोण में स्थित है और समुद्रतट से प्रायः 4300 फ़ुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ है। इसका पहला नाम कोंडाणा था जो सम्भवतः इसी नाम के निकटवर्ती ग्राम के कारण हुआ था। दन्तकथाओं के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में 'कौंडिन्य' अथवा 'श्रृंगी ऋषि' का आश्रम था।DOWNLOAD: सिंहगढ़ विजय एवं अन्य कहानियाँ
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