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Saturday, 25 February 2017

चंद्रकांता संतति -All part in One

ALL PART IN ONE BOOK

बाबू देवकीनंदन खत्री लिखित चन्द्रकान्ता संतति हिन्दी साहित्य का ऐसा उपन्यास है जिसने पूरे देश में तहलका मचाया था। इस उपन्यास की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि इसे पढ़ने के लिए हजारों गैर-हिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी। चंद्रकांता संतति उपन्यास को आधार बनाकर निरजा गुलेरी ने इसी नाम से टेलीविजन धारावाहिक बनाई। यह धारावाहिक दूरदर्शन के सर्वाधिक लोकप्रिय धारावाहिकों में शुमार हुई।
"चन्द्रकान्ता" और "चन्द्रकान्ता सन्तति" में यद्यपि इस बात का पता नहीं लगेगा कि कब और कहाँ भाषा का परिवर्तन हो गया परन्तु उसके आरम्भ और अन्त में आप ठीक वैसा ही परिवर्तन पायेंगे जैसा बालक और वृद्ध में। एक दम से बहुत से संस्कृत शब्दों का प्रचार करते तो कभी सम्भव न था कि उतने संस्कृत शब्द हम ग्रामीण लोगों को याद करा देते। इस पुस्तक के लिए वह लोग भी बोधगम्य उर्दू के शब्दों को अपनी विशुद्ध हिन्दी में लाने लगे जो आरम्भ में इसका विरोध करते थे।

हमे परमाणु के विषय मे ज्ञान कैसे हुआ ?

Friday, 24 February 2017

विश्व परिचय-रवीद्र नाथ ठाकुर


श्रीयुत सत्येन्द्रनाथ वसु,
इस पुस्तक को तुम्हारे नाम के साथ युक्त कर रहा हूँ। कहना व्यर्थ है कि इसमें विज्ञान की ऐसी सम्पति नहीं है जो बिना संकोच तुम्हारे हाथों में दी जा सके। इसके सिवा अनधिकार प्रवेश के कारण इसमें बहुत-सी रालतियाँ रह गई होंगी. इस आशंका से लजा भी अनुभव कर रहा हूँ: बहुत संभव, इसे देकर तुम्हारे सम्मान की रक्षा ही नहीं हो सकी है। प्रमाण्य ग्रन्थों को सामने रखकर मैंने यथा-साध्य निरौनी की है। कुछ काम की चीजें भी उखड़ गई हैं। मेरे इस दु:साहस के दृष्टान्त से यदि कोई मनीषी, जो एक ही साथ साहित्य-रसिक भी हों और विज्ञानी भी, इस अत्यावश्यक कर्तव्यकर्म के लिए तत्पर हों तो मेरा प्रयत्न सफल होगा। . जिन्होंने शिक्षा आरंभ की है, उन्हें शुरू से ही विज्ञान के भांडार में नहीं तो उसके अॉगन में प्रवेश करना अत्यावश्यक है। इस स्थान पर विज्ञान का प्रथम परिचय कराने के कार्य में साहित्य की सहायता स्वीकार कर लेने में कोई अगौरव की बात नहीं। यही दायित्व लेकर मैंने कार्य शुरू किया है। लेकिन इसकी जवाबदेही अकेले साहित्य के प्रति ही नहीं है, विज्ञान के प्रति भी है। तथ्य की यथार्थता और उसके प्रकाश करने के औचित्य के संबंध में विज्ञान थोड़ी-सी त्रुटि भी क्षमा नहीं करता। इस ओर भी मैं यथासम्भव सतर्क रहा हूँ। वस्तुत: मैंने विद्यार्थियों के प्रति ही सीमित नहीं है. स्वयं अपने प्रति भी है। इसे लिखने के कार्य में मुझे अपने आपको भी शिक्षा देते हुए आगे बढ़ना पड़ा है। छात्र-मनोभाव की यह साधना शायद विद्यार्थियों की शिक्षा-साधना के लिए उपयोगी हो भी सकती है। अपनी कैफियत कुछ विस्तार के साथ ही तुम्हारे सामने देनी पड़ रही है। क्योंकि ऐसा करने से ही इसके लिखने में मेरा जो मनोभाव रहा है वह तुम्हारे निकट स्पष्ट हो सकेगा। विश्व-जगत् ने अपने अति छोटे पदार्थों को छिपा रखा है और अत्यन्त बड़े पदार्थों को छोटा बनाकर हमारे सामने उपस्थित किया है अथवा नेपथ्य में हटा रखा है। उसने अपने चेहरे को इस प्रकार सजाकर हमारे सामने रखा है कि मनुष्य उसे अपनी सहज बुद्धि के फ्रेम में बैठा सके। किन्तु मनुष्य और चाहे जो कुछ भी हो, सहज मनुष्य नहीं है। वही एक ऐसा जीव है जिसने अपने सहज बोध को ही संदेह के साथ देखा है, उसका प्रतिवाद किया है और हार मानने पर ही प्रसन्न हुआ है। मनुष्य ने सहज शक्ति की सीमा पार करने की साधना के द्वारा दूर को निकट बनाया है, अदृश्य को प्रत्यक्ष किया है और दुबेधि को भाषा दी है। प्रकाशलोक के अन्तराल में जो अप्रकाश लोक है, उसी गहन में प्रवेश करके मनुष्य ने विश्व-व्यापार के मूल रहस्य को निरन्तर उद्घाटित किया है। जिस साधना के द्वारा यह सब संभव हुआ है उसके लिए सुयोग और शक्ति पृथ्वी के अधिकांश मनुष्यों के पास नहीं है। फिर भी जो लोग इस साधना की शक्ति और दान से एकदम वंचित रह गये हैं, वे आधुनिक युग के सीमान्त प्रदेश में जातिबहिष्कृत हो गये हैं। हैं और मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं। जिन देशों में विज्ञान की चर्चा होती रहती है वहाँ ज्ञान के टुकड़े टूट-टूटकर निरंतर बिखरते रहते हैं। इससे वहाँ की चिन्तभूमि में उर्वरता का जीव धर्म जाग उठा करता है। उसी के अभाव में हम लोगों का मन अवैज्ञानिक हो गया है। यह दीनता केवल विद्या के विभाग में नहीं, कार्यक्षेत्र में भी हम लोगों को अकृतार्थ कर रही है। मेरे जैसा अनाड़ी जो इस अभाव को थोड़ा-सा भी दूर करने के प्रयत्न में लगा है, इससे वे ही लोग सबसे अधिक कौतूहल अनुभव करेंगे जो मेरे ही जैसे अनाड़ियों के दल में हैं। किन्तु मुझे भी कुछ थोड़ा कहना है। बच्चे के प्रति माता का औत्सुक्य तो रहता है लेकिन डाक्टर की तरह उसे विद्या नहीं आती। विद्या तो वह उधार ले सकती है पर उत्सुकता उधार नहीं ली जा सकती। यह औत्सुक्य सेवा-शुश्रुषा में जिस रस को मिला देता है वह अवहेला की चीज नहीं है।
यह कहना ही व्यर्थ है कि मैं विज्ञान का साधक नहीं हूँ। किन्तु बाल्यकाल से ही विज्ञान का रस आस्वादन करने में मेरे लोभ का अन्त नहीं था । उस समय मेरी अवस्था शायद नौ दस वर्ष की होगी: बीच बीच में रविवार के दिन अचानक सीतानाथ दत्त महाशय आ जाते थे । आज जानता हैं, उनके पास पूँजी बहुत अधिक नहीं थी किन्तु विज्ञान की दो एक साधारण बातें जब वे दृष्टान्त देकर समझा देते तो मेरा मन आश्चर्य से भर जाता। याद आता है जब उन्होंने पहले-पहल काठ का बुरादा देकर दिखा दिया कि आग पर चढ़ाने से नीचे का गर्म पानी हल्का होकर ऊपर उठता रहता है और ऊपर का ठंडा और भारी पानी नीचे उतरता रहता है. इसी लिए पानी खौलता है, तो अनवच्छिन्न जल में एक ही समय ऊपर और नीचे निरन्तर इतना भेद घट सकता है यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था। उस आश्चर्य की स्मृति आज भी मन में विद्यमान है । जिस घटना की स्वत: सहज है, इस विचार ने शायद पहले-पहल उसी दिन मेरे मन को चिन्तामग्न किया था। इसके बाद अवस्था जब शायद बारह की होगी ( यह कह रखना अच्छा है कि कोई कोई आदमी जैसे रंग के अंधे होते हैं अर्थात् रंग नहीं देख सकते वैसे ही मैं तारीख का अंधा हूँ-मैं तारीख याद नहीं रख सकता ) उस समय पूज्य पिता जी के साथ डलहौसी पहाड़ पर गया था। सारा दिन टोकरियों में लदकर शाम को डाकवेंगले तक पहुँचता । पिताजी कुर्सी निकालकर अॉगन में बैठ जाते। देखते-देखते, गिरिश्रृंगों से वेटित निविड़ नील अंधकार में जान पड़ता तारिकायें उतर आई हैं। वे मुझे नक्षत्रों की पहिचान करा देते। केवल परिचय ही नहीं, सूर्य से उनकी कक्षा की दूरी, प्रदक्षिणा में लगनेवाला समय और अन्यान्य विवरण मुझे सुना जाते। वे जो कुछ कह जाते उसे याद करके उन दिनों अनभ्यस्त लेखनी से मैंने एक बड़ा-सा प्रबंध लिखा था । रस मिला था, इसी लिए लिख सका था। जीवन में यह मेरी पहली धारावाहिक रचना थी, और वह थी वैज्ञानिक संवादों के आधार पर । इसके बाद उम्र बढ़ती गई। उन दिनों तक मेरी बुद्धि इतनी खुल गई थी कि अन्दाज से अंग्रेजी भाषा समझ सकृ । उन्हें पढ़ने में कोई कोर कसर नहीं रखी। बीच बीच में गणितसंबंधी दुर्गमता के कारण मार्ग वन्धुर हो उठा था फिर भी उसकी कृच्छुता के ऊपर से ही मन को ठेल-ठालकर आगे बढ़ाता गया। इससे मैंने यह बात सीखी है कि जीवन की प्रथम अभिज्ञता के मार्ग में हम जो सब कुछ समझते हों सो बात नहीं है, और सब कुछ स्पष्ट न समझने के कारण हम आगे न बढ़ते हों, यह बात भी नही कह सकते। जल-स्थल विभाग की भाँति ही हम जितना समझते हैं उससे कहीं अधिक नहीं समझते, तो भी काम चल जाता है और हम आनन्द भी पाते हैं। कुछ अंश में न समझना भी हमें अग्रसर होने के मार्ग में आगे ठेल देता है। जब मैं लड़कों को पढ़ाया करता था तो यह बात मेरे मन में रहती थी। मैंने कई बार बड़ी अवस्था का पाठयसाहित्य छोटी उम्र के विद्यार्थियों को पढ़ाया है। उन्होंने कितना समझा है, इसका पूरा हिसाब नहीं लिया; लेकिन यह जानता हूँ कि हिसाब के बाहर भी वे बहुत कुछ समझ लेते हैं. जो निश्चय ही अपथ्य नहीं है। यह बोध परीक्षक की मार्क देनेवाली पेन्सिल के अधिकार का नहीं है किन्तु इसका मूल्य काफ़ी है। अन्तत: मेरे जीवन से यदि इस प्रकार बटोरकर संग्रह की हुई बातें निकाल दी जायें तो बहुत कुछ जाता रहेगा।
मैं ज्योतिर्विज्ञान की सरल पुस्तकें पढ़ने लगा। उन दिनों इस विषय की पुस्तकें कम नहीं निकली थीं। सर राबर्ट बाल की बड़ी पुस्तक ने मुझे काफी आनन्द दिया है। इस आनन्द का अनुसरण करने की आकांक्षा से निउकोम्बस्, फलामरिय रेशा समेत निगलता गया हूँ। इसके बाद एक बार साहस निबन्धमाला शुरू की। ज्योतिर्विज्ञान और प्राणिविज्ञान केवल इन दो विषयों को ही में उलटता-पुलटता रहा। इसे पक्की शिक्षा नहीं कह सकते अर्थात् इसमें पांडित्य की कड़ी गेंथाई नहीं है। किन्तु निरंतर पढ़ते पढ़ते मन में एक वैज्ञानिक वृत्ति स्वाभाविक हो उठी थी; आशा करता हूँ, अंधविश्वास की मृढ़ता के प्रति मेरी जो अश्रद्धा है उसने बुद्धि की उच्छङ्गलता से बहुत दूर तक मेरी रक्षा की है। फिर भी मुझे ऐसा नहीं लगता कि उत्त कारण से कवित्व के इलाके में कल्पना के महल की कोई विशेष हानि हुई है। आज आयु के अन्तिम पर्व में मन नये प्राकृत तत्व-वैज्ञानिक मायावाद-से अभिभूत है। उन दिनों जो कुछ पढ़ा था, उसका सब समझ नहीं सका था, लेकिन फिर भी पढ़ता हो गया । आज भी जो कुछ पढ़ता हूँ उसमें का सब कुछ समझना मेरे लिए संभव नहीं है और अनेक विशेषज्ञ पंडितों के लिए भी ऐसा ही है। जो लोग विज्ञान से चित्त का खाद्य संग्रह कर सकते हैं वे तपस्वी हैं-मिटान्नमितरे जना: मैं केवल रस पाता हूँ। इसमें गर्व करने की कोई बात नहीं है, किन्तु मन प्रसन्न होकर कहता है, यथालाभ। यह पुस्तक उस यथालाभ की ही भोली है। मधुकरी वृत्ति का आश्रय करके सात पाँच घरों से इसका संग्रह किया गया है। पाण्डित्य तो अधिक है ही नहीं, इसलिए उसे अज्ञात बना रखने के लिए विशेष उद्योग नहीं करना पड़ा। प्रयत्न किया है भाषा की ओर। विज्ञान की सम्पूर्ण शिक्षा के लिए पारिभाषिक शब्दों की जरूरत है। लेकिन पारिभाषिक शब्द चव्र्य (चबाकर खाये जानेवाले) पदार्थ की जाति के हैं. दाँत जमने के बाद वे पथ्य होते हैं। यह बात याद करके जहाँ तक हो सका है परिभाषाओं से बचकर सहज भाषा की ओर ही ध्यान दिया है। इस पुस्तक में एक बात को लक्ष्य करना-इसकी नाव अर्थात् इसकी भाषा सहज ही चल सके, यह कोशिश तो इसमें है परन्तु माल बहुत कम करके हल्का बनाने को मैंने अपना कर्तव्य नहीं माना। दया करके वत्रित करने को दया करना नहीं कहते। मेरा मत यह है कि जिनका मन अर्धविकसित है, वे जितना स्वभावत: ले सकेंगे, उतना ले लेंगे बाक़ी को अपने आप छोड़ देंगे। लेकिन इसी कारण से उनके पतल को प्राय: भोज्यशून्य कर देने को सद्व्यवहार नहीं कहा जा सकता। मन लगाना और कोशिश करके समझने का प्रयत्न करना भी शिक्षा का अंग है, वह आनन्द का ही सहचर है। बाल्यकाल में अपनी शिक्षा का जो प्रयत्न मैंने ग्रहण किया था उस पर से यही मेरी अभिज्ञता है । एक विशेष उम्र में जब दूध अच्छा नहीं लगता था उस समय में बड़ों को धोखा देने के लिए दूध को नीचे से ऊपर तक फेनिल करके कटोरा भरने का षड्यंत्र किया करता था । जो लोग बालकों के पढ़ने की किताबें लिखा करते हैं, देखता हूँ, वे भी काफी मात्रा में फेन की व्यवस्था किया करते हैं। यह बात वे भूल जाते हैं कि ज्ञान का जैसा आनन्द है, वैसा ही उसका मूल्य भी है: लड़कपन से ही उस मूल्य के चुकाने में कसर करने से यथार्थ आनन्द के अधिकार पाने में भी कसर रह जाती है । चबाकर खाने से जहाँ एक तरफ़ दाँत मजबूत होते हैं वहाँ दूसरी तरफ़ भोजन का पूरा स्वाद भी मिलता है। यह पुस्तक लिखते समय यथासाध्य इस श्रीमान प्रमथनाथ सेनगुम एम० एस-सी० तुम्हारे ही पुराने विद्यार्थी हैं। वे शान्तिनिकेतन विद्यालय में विज्ञान के अध्यापक हैं। पहले मैंने इस पुस्तक के लिखने का कार्य उन्हीं को सौंपा था। धीरे धीरे हटते हटते सारा भार अन्त में मेरे ऊपर ही आ पड़ा। वे अगर शुरू न करते तो मैं समाधा न कर सकता। इसके सिवा अनभ्यस्त रास्ते पर अव्यवसायी के साहस से काम भी नहीं चलता। उनके पास से मुझे भरोसा भी मिला है और सहायता भी मिली है। अलमोड़ा आकर, एकान्त में, इसका लिखना पूरा कर सका हूँ। मेरे स्नेहास्पद मित्र वशी सेन को पाने से एक अच्छा अवसर भी मिल गया। उन्होंने यत्नपूर्वक यह सारी रचना पढ़ी है। पढ़कर प्रसन्न हुए हैं, यही हमारे लिए सबसे बड़ा लाभ है। मेरी अस्वस्थता की हालत में स्नेहास्पद श्रीयुक्त राजशेखर वसु महाशय ने बड़े यत्र के साथ भ्रूफ संशोधन करके पुस्तक प्रकाशित करने के कार्य में मुझे विशेष सहायता दी। इसलिए उनके प्रति कृतज्ञ हैं। – रवीन्द्रनाथ ठाकुर


Wednesday, 22 February 2017

झाँसी की रानी -शुभद्र कुमारी चौहान

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।


Friday, 17 February 2017

सागर के रहस्यों की कहानी

समुद्र को सागर, पयोधि, उदधि, पारावार, नदीश, जलधि, सिंधु, रत्नाकर, वारिधि आदि नामों से भी पुकारा जाता है। अंग्रेजी में  इसे सी (sea) कहते और महासागर को ओशन (ocean) कहते हैं। 

ब्रह्मांड में धरती धूल का कण भी नहीं। मान लो अगर धरती धूल के कण के बराबर है तो सूर्य संतरे के बराबर होगा। आज भी इस धरती पर 70 प्रतिशत से अधिक जल है। धरती के वजन से 10 गुना ज्यादा इस धरती ने जल को वहन... कर रखा है। मानव आबादी धरती के मात्र 20 से 25 प्रतिशत हिस्से पर रहती है उसमें भी अधिकतर पर जंगल, रेगिस्तान, पहाड़ और नदियां हैं। इस 20 से 25 प्रतिशत हिस्से पर ही रहस्यों के अंबार लगे हुए हैं। ऐसे में... समुद्र के 70 से 75 प्रतिशत हिस्सों को तो अभी मानव संपूर्ण रूप से देख भी नहीं पाया है। प्राचीनकाल से लोग सागर की यात्रा करने और इसके रहस्यों को जानने की कोशिश में लगे हुए हैं।  

DOWNLOAD- सागर के रहस्यों की कहानी
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Sunday, 12 February 2017

The Hardy Boys Mystery Stories (11 to 15)-Frenklin W Dixon


11.  While the Clocked Ticked                            While the Clocked Ticked   
13. The Mark On The Door                            The Mark On The Door   
15. The Sinester Signpost                       The Sinester Signpost  

हिन्दुत्व-वीर सावरकर

हिन्दुत्व हिन्दू धर्म के अनुयायियों को एक और अकेले राष्ट्र में देखने की अवधारणा है। हिन्दुत्ववादियों के अनुसार हिन्दुत्व कोई उपासना पद्धति नहीं, बल्कि हिन्दू लोगों द्वारा बना एक राष्ट्र है। वीर सावरकर ने हिन्दुत्व और हिन्दूशब्दों की एक परिभाषा दी थी जो हिन्दुत्ववादियों के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि हिन्दू वो व्यक्ति है जो भारत को अपनी पितृभूमि और अपनी पुण्यभूमि दोनो मानता है। हिन्दू धर्म को सनातन, वैदिक या आर्य धर्म भी कहते हैं। हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है।
भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है। इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है।
ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति ‍इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' कहने लगे।



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Thursday, 9 February 2017

हमारे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान


भारत अनादि काल से संस्कृतिआस्थाआस्तिकता और धर्म का महादेश रहा है। इसके हर भाग और प्रान्त में विभिन्न देवी-देवताओं से सम्बद्ध कुछ ऐसे अनेकानेक प्राचीन और (अपेक्षाकृत नए) धार्मिक स्थान (तीर्थ) हैं, जिनकी यात्रा के प्रति एक आम भारतीय नागरिक पर्यटन और धर्म-अध्यात्म दोनों ही आकर्षणों से बंधा इन तीर्थस्थलों की यात्रा [1] के लिए सदैव से उत्सुक रहा है। 

यों तो तीर्थ की परिभाषाएँ अनेक हैं, पर शायद सबसे संक्षिप्त है- तीर्थी कुर्वन्ति तीर्थानि (जो स्थान मन-प्राण-शरीर को निर्मल कर दे, वही तीर्थ है। )" तीन प्रकारों के तीर्थ भारतीय मनीषा में उल्लिखित हैं- नित्य तीर्थ, भगवदीय तीर्थ और संत तीर्थ



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