यह उपन्यास महाभारत के उस संक्षेपण कार्य का संशोधित, परिवर्धित साहित्यिक पुनर्लेख है जो मैंने मानव संसाधन मन्त्रालय की अधिसदस्यता के अन्तर्गत 1998-2000 में किया था। इसके अन्तर्गत महाभारत पढ़ने का विशेष अवसर प्रदान कराने के लिए मैं मन्त्रालय का आभारी हूँ। इसी सन्दर्भ में, मैं आभारी हूँ युवा कवि श्री अनिल जोशी का, जिन्होंने रामायण पर मेरा संक्षेपण कार्य देखकर, मुझसे महाभारत पर कुछ वैसा ही कार्य करने का अनुरोध किया. इस सीमा तक कि उन्होंने ‘पठान की भौति’ पीछे पड़कर मुझसे न केवल उस कार्य की रूपरेखा लिखवायी, वे उसे स्वयं ही लेकर मन्त्रालय भी गये। मैं गीताप्रेस गोरखपुर के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ जिनके द्वारा प्रकाशित अनुवादों के माध्यम से मेरे लिए महाभारत पढ़ना-समझना सम्भव हुआ।
महाभारत के पुन:पाठ एवं उसे लघु आकार में समेटने के प्रयास में यह कटु सत्य भी मुझ पर उजागर हुआ कि यह एक दुष्कर कार्य है। महाभारत मात्र एक परिवार की कथा नहीं है, बहुत कुछ सत् सन्देश भी है जो शान्तिपर्व विदुरनीति, गीता, धर्मव्याध, महर्षि सनत्सुजात विदुला आदि के सन्देशों में यत्र-तत्र वर्णित है। उन सब को स्वतन्त्र रूप से प्रच्छालित करके सुपाठ्य रूप में प्रस्तुत करने का कार्य आवश्यक तो है किन्तु वह सब, मेरे लिये, इस संक्षिप्त गाथा में समाहित कर पाना सम्भव नहीं था।
सम्भव है कि भक्ति-भाव से महाभारत का पाठ करनेवाले कुछ श्रद्धालुओं को मेरा यह विश्लेषण दुष्प्रयास लगे। मैं क्षमा-याचना सहित उन्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरे मन में उनके विश्वास के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। मेरा यह विश्लेषण तो महाभारत का सन्देश उस वर्तमान पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए है जो चमत्कारों से परे तर्क-सम्मत प्रसंगों को ही स्वीकार कर पाती है। -सीतेश आलोक