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Tuesday, 18 April 2017

136. कविता की नई तारीख -काशीनाथ सिंह

  • अन्य रचनाएँ

  • Kashinath Singh (2004). Kashi Ka Assi.
  • Kashinath Singh (2011). Rehan Par Regghu
  • Kashinath Singh (2007). Yaad Ho Ki Na Yaad Ho
  • Kashinath Singh (2007). Apna Morcha.
  • Kashinath Singh (2003). Kahani Upkhan
  • Kashinath Singh (2008). Pratinidhi Kahaniyan
  • Kashinath Singh (2006). Ghar Ka Jogi Jogda
  • Kashinath Singh (2012). Mahuacharit
  • Kashinath Singh (2014). Upsanhar
  • Kashinath Singh (2012). Lekhak Ki Chherchhaar.
  • Kashinath Singh (2012). Kavita Ki Nayi Taareekh. 
                             
                                                         

Friday, 14 April 2017

135. सारा आकाश-राजेंद्र यादव


राजेन्द्र यादव हिन्दी के सुपरिचित लेखक कहानीकारउपन्यासकार व आलोचक थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया। राजेन्द्र यादव ने उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द द्वारा सन् 1930 में स्थापित साहित्यिक पत्रिका हंस का पुनर्प्रकाशन 31 जुलाई 1986 को प्रारम्भ किया था। यह पत्रिका सन् 1953 में बन्द हो गयी थी। इसके प्रकाशन का दायित्व उन्होंने स्वयं लिया और अपने मरते दम तक पूरे 27 वर्ष निभाया। 

राजेन्द्र यादव ने 1951 ई० में आगरा विश्वविद्यालय से एम०ए० की परीक्षा हिन्दी साहित्य में प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की। उनका विवाह सुपरिचित हिन्दी लेखिका मन्नू भण्डारी के साथ हुआ । 
हिन्दी अकादमीदिल्ली द्वारा राजेन्द्र यादव को उनके समग्र लेखन के लिये वर्ष 2003-04 का सर्वोच्च सम्मान (शलाका सम्मान) प्रदान किया गया था।
नवीन सामाजिक चेतना के कथाकार राजेन्द्र यादव की पहली कहानीप्रतिहिंसा(1947) कर्मयोगी मासिक में प्रकाशित हुई थी। उनके पहले उपन्यास  प्रेत बोलते हैं (1951) जो बाद में सारा आकाश (1959) नाम से प्रकाशित हुई उन्हें अपने समय के प्रमुख उपन्यासकारों में स्थापित कर दिया। उन्होंने अपने साहित्य में मानवीय जीवन के तनावों और संघर्षों को पूरी संवेदनशीलता से जगह दी है। दलित और स्त्री मुद्दों को साहित्य के केंद्र में लेकर आए।



Tuesday, 11 April 2017

134. महागाथा-सीतेश आलोक


यह उपन्यास महाभारत के उस संक्षेपण कार्य का संशोधित, परिवर्धित साहित्यिक पुनर्लेख है जो मैंने मानव संसाधन मन्त्रालय की अधिसदस्यता के अन्तर्गत 1998-2000 में किया था। इसके अन्तर्गत महाभारत पढ़ने का विशेष अवसर प्रदान कराने के लिए मैं मन्त्रालय का आभारी हूँ। इसी सन्दर्भ में, मैं आभारी हूँ युवा कवि श्री अनिल जोशी का, जिन्होंने रामायण पर मेरा संक्षेपण कार्य देखकर, मुझसे महाभारत पर कुछ वैसा ही कार्य करने का अनुरोध किया. इस सीमा तक कि उन्होंने ‘पठान की भौति’ पीछे पड़कर मुझसे न केवल उस कार्य की रूपरेखा लिखवायी, वे उसे स्वयं ही लेकर मन्त्रालय भी गये। मैं गीताप्रेस गोरखपुर के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूँ जिनके द्वारा प्रकाशित अनुवादों के माध्यम से मेरे लिए महाभारत पढ़ना-समझना सम्भव हुआ।

महाभारत के पुन:पाठ एवं उसे लघु आकार में समेटने के प्रयास में यह कटु सत्य भी मुझ पर उजागर हुआ कि यह एक दुष्कर कार्य है। महाभारत मात्र एक परिवार की कथा नहीं है, बहुत कुछ सत् सन्देश भी है जो शान्तिपर्व विदुरनीति, गीता, धर्मव्याध, महर्षि सनत्सुजात विदुला आदि के सन्देशों में यत्र-तत्र वर्णित है। उन सब को स्वतन्त्र रूप से प्रच्छालित करके सुपाठ्य रूप में प्रस्तुत करने का कार्य आवश्यक तो है किन्तु वह सब, मेरे लिये, इस संक्षिप्त गाथा में समाहित कर पाना सम्भव नहीं था।
सम्भव है कि भक्ति-भाव से महाभारत का पाठ करनेवाले कुछ श्रद्धालुओं को मेरा यह विश्लेषण दुष्प्रयास लगे। मैं क्षमा-याचना सहित उन्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरे मन में उनके विश्वास के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। मेरा यह विश्लेषण तो महाभारत का सन्देश उस वर्तमान पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए है जो चमत्कारों से परे तर्क-सम्मत प्रसंगों को ही स्वीकार कर पाती है।  -सीतेश आलोक

Thursday, 6 April 2017

131. जुलूस- प्रेमचंद

            
पूर्ण स्वराज्य का जुलूस निकल रहा था। कुछ युवक, कुछ बूढ़े, कुछ बालक झंडियाँ और झंडे लिये वंदेमातरम् गाते हुए माल के सामने से निकले। दोनों तरफ दर्शकों की दीवारें खड़ी थीं, मानो उन्हें इस लक्ष्य से कोई सरोकार नहीं हैं, मानो यह कोई तमाशा है और उनका काम केवल खड़े-खड़े देखना है।
शंभूनाथ ने दूकान की पटरी पर खड़े होकर अपने पड़ोसी दीनदयाल से कहा-सब के सब काल के मुँह में जा रहे हैं। आगे सवारों का दल मार-मार भगा देगा।
दीनदयाल ने कहा-महात्मा जी भी सठिया गये हैं। जुलूस निकालने से स्वराज्य मिल जाता तो अब तक कब का मिल गया होता। और जुलूस में हैं कौन लोग, देखो-लौंडे, लफंगे, सिरफिरे। शहर का कोई बड़ा आदमी नहीं------------

Wednesday, 5 April 2017

130. आखिर क्यों -विष्णु प्रभाकर

129. संस्कृति का चार अद्ययाय-रामधारी सिंह दिनकर

संस्कृति के चार अध्याय हिन्दी के विख्यात साहित्यकार रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित एक भारतीय संस्कृति का सर्वेक्षण है जिसके लिये उन्हें सन् 1959 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।[1]
संस्कृति के चार अध्याय राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह दिनकर की एक बहुचर्चित पुस्तक है जिसे साहित्य अकादमी ने सन् १९५६ में न केवल पहली बार प्रकाशित किया अपितु आगे चलकर उसे पुरस्कृत भी किया। इस पुस्तक में दिनकर जी ने भारत के संस्कृतिक इतिहास को चार भागों में बाँटकर उसे लिखने का प्रयत्न किया है। वे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि भारत का आधुनिक साहित्य प्राचीन साहित्य से किन-किन बातों में भिन्न है और इस भिन्नता का कारण क्या है ? उनका विश्वास है कि भारतीय संस्कृति में चार बड़ी क्रान्तियाँ हुई हैं और हमारी संस्कृति का इतिहास उन्हीं चार क्रान्तियों का इतिहास है।
पहली क्रान्ति तब हुई, जब आर्य भारतवर्ष में आये अथवा जब भारतवर्ष में उनका आर्येतर जातियों से सम्पर्क हुआ। आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति उत्पन्न हुई, वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी। इस बुनियादी भारतीय संस्कृति के लगभग आधे उपकरण आर्यों के दिए हुए हैं। और उसका दूसरा आधा आर्येतर जातियों का अंशदान है। दूसरी क्रान्ति तब हुई, जब महावीर और गौतम बुद्ध ने इस स्थापित धर्म या संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह किया तथा उपनिषदों की चिन्ताधारा को खींच कर वे अपनी मनोवांक्षित दिशा की ओर ले गये। इस क्रान्ति ने भारतीय संस्कृति की अपूर्व सेवा की, अन्त में, इसी क्रान्ति के सरोकार में शैवाल भी उत्पन्न हुए और भारतीय धर्म तथा संस्कृति में जो गँदलापन आया वह काफी दूर तक, उन्हीं शैवालों का परिणाम था। तीसरी क्रान्ति उस समय हुई जब इस्लाम, के विजेताओं के धर्म के रूप में, भारत पहुँचा और देश में हिन्दुत्व के साथ उसका सम्पर्क हुआ और चौथी क्रान्ति हमारे अपने समय में हुई, जब भारत में यूरोप का आगमन हुआ तथा उसके सम्पर्क में आकर हिन्दुत्व एवं इस्लाम दोनों ने नव-जीवन का सम्भव किया। इस पुस्तक में इन्हीं चार क्रांतियों का संक्षिप्त इतिहास है।[2]