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Wednesday, 22 November 2017

3 बौने-मेनका अग्रवाल

यह कहानी अन्यंत गरीब परिवार में पैदा हुयी दो बहनों और जंगल में रहने वाले तीन बौनों की है। मालती और सुनैना ने अत्यंत गरीब परिवार में जन्म लिया और दुनिया में बहुत दुःख सहे। कहते हैं जीवन एक प्रवाह है और इसी प्रवाह में बहते हुये एक बार मालती और सुनैना बिछड़ जाते हैं। मालती दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है और सुनैना को बौने उठा ले जाते हैं। पूरी कहानी पढ़िये ....

3 बौने-मेनका अग्रवाल

Tuesday, 14 November 2017

आग का दरिया-कुर्तुल एन हैदर

1959 में जब आग का दरिया प्रकाशित हुआ तो भारत और पाकिस्तान के अदबी हल्कों में तहलका मच गया । भारत विभाजन पर तुरन्त प्रतिक्रिया के रूप में हिंसा, रक्तपात और बर्बरता की कहानियाँ तो बहुत छपीं लेकिन अनगिनत लोगों की निजी एवं एक सांस्कृतिक-ऐतिहासिक त्रासदी के रूप में कुर्रतुलऐन हैदर ने ही प्रस्तुत किया है। उन्होंने आहत मानसिकता और घायल मनोवैज्ञानिक अलगाव के मर्म को पेश किया और इस प्रकार एक महान त्रासदी तो एक महान उपन्यास की शक्ल देकर हमारा ध्यान आकर्षित किया। इस उपन्यास का प्रारम्भ आज से ढाई हज़ार वर्ष पूर्व भारतीय सभ्यता के उस परिपेक्ष्य में होता है जो शरावती और पाटलिपुत्र में विकसित हुई। मुसलमानों के आगमन से इस सभ्यता में नये तत्व शामिल होना शुरु हुए। समय की धारा में बहते-बहते गौतम, नीलाम्बर, हरिशंकर, चम्पा, अहमद, कमाल, तलअत आदि आज के भारत में पहुंच जाते हैं।

आग का दरिया-कुर्तुल एन हैदर
आग का दरिया-कुर्तुल एन हैदर

DBMS- Databas Managememnt System-कुलदीप चंद

Saturday, 28 October 2017

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य- गंगा प्रसाद मेहता


चन्द्रगुप्त द्वितीय महान जिनको संस्कृत में विक्रमादित्य या चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है; गुप्त वंश के एक महान शक्तिशाली सम्राट थे। उनका राज्य 375-413/15 ई तक चला जिसमें गुप्त राजवंश ने अपना शिखर प्राप्त किया। गुप्त साम्राज्य का वह समय भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय महान अपने पूर्व राजा समुद्रगुप्त महान के पुत्र थे। उसने आक्रामक विस्तार की नीति एवं लाभदयक पारिग्रहण नीति का अनुसार करके सफलता प्राप्त की।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य- गंगा प्रसाद मेहता
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य- गंगा प्रसाद मेहता

भारत का संविधान-सिद्धांत और व्यवहार

Wednesday, 25 October 2017

संक्षिप्त महाभारत

महाभारत प्राचीन भारत का सबसे बड़ा महाकाव्य है।ये एक धार्मिक ग्रन्थ भी है। इसमें उस समय का इतिहास लगभग १,११,००० श्लोकों में लिखा हुआ है।
पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, आयु से राजा नहुष और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया। चित्रांगद बाल्यावस्था में ही चित्रांगद नाम वाले गन्धर्व के द्वारा मारे गये। फिर भीष्म संग्राम में विपक्षी को परास्त करके काशिराज की दो कन्याओं - अंबिका और अंबालिका को हर लाये। वे दोनों विचित्रवीर्य की भार्याएँ हुईं। कुछ काल के बाद राजा विचित्रवीर्य राजयक्ष्मा से ग्रस्त हो स्वर्गवासी हो गये। तब सत्यवती की अनुमति से व्यासजी के द्वारा अम्बिका के गर्भ से राजा धृतराष्ट्र और अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु उत्पन्न हुए। धृतराष्ट्र ने गान्धारी के गर्भ से सौ पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें दुर्योधन सबसे बड़ा था और पाण्डु के युधिष्टर,भीम,अर्जुन,नकुल,सहदेव आदि पांच पुत्र हुए।

Tuesday, 24 October 2017

शून्य समाधि-ओशो

समाधि जैसे दीपक की लौजैसे नागिन का फन। समाधि जैसे चटके कलीजैसे लहके चमन। समाधि जैसे उमड़े घटाजैसे फूटे किरन। गत्यात्मकताऊर्जाप्रवाहजीवंतता। परमात्मा कोई ठहरी हुई चीज नहीं। परमात्मा .शाश्वत प्रवाह है। इसीलिए तो परमात्मा जीवन है। परमात्मा पत्थर नहीं हैपरमात्मा फूल है। समाधि को जानो तो ही जान पाओगे।

 मैं राजी तुम्हें समाधि में ले चलने को हूँतुम बाहर बाहर से मत पूछो। मैं कुछ कहूँगातुम कुछ समझोगे। तुम बाहर बाहर से पूछोगे तो चूकोगे। आओभीतर आओ,द्वार खुले हैंदस्तक भी देने की कोई जरूरत नहीं हैआओभीतर आओ। और अगर तुम जरा हिम्मत करो इस देहली के पार होने कीतो तुम जान लोगे समाधि क्या है। समाधि स्वयं का मिट जाना और परमात्मा का आविर्भाव है। समाधि समाधान है। इसलिए समाधि कहते हैं उसे। सारी समस्याओं का समाधान। फिर कोई समस्या न रही,कोई प्रश्न न रहाकोई चिंता न रहीसब शांत हो गयासब प्रश्न गिर गयेसब समस्याएँ तिरोहित हो गयींएक शून्य रह गया। लेकिन उसी शून्य में पूर्ण उतरता है। तुम शून्य बनोपूर्ण उतरने को तत्पर बैठा है। तुम्हारी तरफ से समाधि शून्य है,परमात्मा की तरफ से समाधि पूर्ण है।

लेकिन एक बात स्मरण रखना सदाजो भी समाधि के संबंध में कहा जाए मै भी जो कह रहा हूँवह भी सम्मिलित है वह सभी कामचलाऊ है। पूछा है तो कह रहा हूँ। पूछा है तो कहना पड़ता है। लेकिन जो हैकहने में नहीं आता है। जो हूऐवह जानने में आता हैअनुभव में आता है। मैं कुछ कहूँगाशब्दों का उपयोग करना पड़ेगा। शब्द में लाते ही वह जो विराट आकाश था समाधि कासिकुड़ कर बहुत छोटा हो गया। और यह बड़ी असंभव बात है।

एक छोटा बच्चा किताब पढ़ रहा था। इतिहास की किताब और उसने पढ़ा नेपोलियन का यह प्रसिद्ध वचन कि संसार में असंभव कुछ भी नहींवह खिल खिला कर हँसने लगा। उसके बाप ने पूछा क्या बात हैतू किताब पढ़ रहा है कि हँस रहा हैउसनेकहा मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि यह इसमें लिखा है संसार में असंभव कोई बात नहीं। पिता ने भी कहा ठीक ही कहा हैसंसार में असंभव कोई बात नहीं है। लड़के ने कहा फिर रुको,मैने आज ही सुबह एक काम करके देखा है जो बिल्कुल असंभव है। बाप ने कहा: कौन सा कामउसने कहा मैं लाता हूँ अभी। वह भागास्नानगृह से जाकर टूथपेस्ट उठा लाया और उसने कहा  इसमें से पहले टूथपेस्ट निकालोफिर भीतर करोयह असंभव है नेपोलियन के जमाने में टूथपेस्ट नहीं होता होगा। इसलिए मुझे हँसी आ गयीक्योंकि सुबह ही मैंने बहुत कोशिश कीलाख कोशिश की मगर फिर भीतर नहीं जाता।

समाधि का अर्थ है पहले मन से बाहर आओटूथपेस्ट निकाल लिया। अब समाधि के संबंध में बताने का मतलब है टूथपेस्ट को फिर भीतर करोफिर शब्दों में लौटोअसंभव है। शायद टूथपेस्ट तो किसी तरह से आ भी जाएकोई उपाय बनाए जा सकते हैं,लेकिन शब्द के बाहर जाकर समाधि का अनुभव होता हैफिर शब्द के भीतर: उसको लाना असंभव है। इशारे हो सकते हैं। वही इशारे मैंने किये। 

संतो मगन भया मन मेरा 

ओशो 

Sunday, 15 October 2017

देवी सीता-जहुरबकश


सीता रामायण और रामकथा पर आधारित अन्य रामायण ग्रंथ, जैसे रामचरितमानस, की मुख्य पात्र है। सीता मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थी। इनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के ज्येष्ठ पुत्र राम से स्वयंवर में शिवधनुष को भंग करने के उपरांत हुआ था। इनकी स्त्री व पतिव्रता धर्म के कारण इनका नाम आदर से लिया जाता है| त्रेतायुग में इन्हे सौभाग्य की देवी लक्ष्मी का अवतार मानते है।
देवी सीता-जहुरबक्स
देवी सीता-जहुरबक्स

कबाड़ से कमाल-अरविंद गुप्ता

Tuesday, 3 October 2017

आदि गुरु शंकराचार्य-ईंद्रा स्वपन

आदि गुरु शंकराचार्य-ईंद्रा स्वपन
आदि गुरु शंकराचार्य-ईंद्रा स्वपन
शिवावतार श्रीमज्जगदगुरु आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईशकेनकठप्रश्नमुण्डकमांडूक्यऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्धमतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया और भारत में चार कोनों पर ज्योति, गोवर्धन, श्रृंगेरी एवं द्वारिका आदि चार मठों की स्थापना की।
कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वांगमय को दार्शनिक ,व्यावहारिक , वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है ।

मेरी जीवन यात्रा : राहुल सांकृत्यायन

मेरी जीवन-यात्रा-राहुल सांकृत्यायन
मेरी जीवन-यात्रा-राहुल सांकृत्यायन


राहुल सांकृत्यायन-हिन्दी में आत्मकथा-साहित्य के क्षेत्र में राहुल जी की 'मेरी जीवन-यात्रा’ एक अविस्मरणीय कृति है। राहुल जी ने अपनी जीवन-यात्रा में, जन्म से लेकर तिरसठवाँ वर्ष पूरा करने तक का वर्णन किया है। उन्होंने आत्मचरित के लिए 'जीवन-यात्रा’ शब्द का प्रयोग किया है। इस विषय में उनका कथन है, ''मैंने अपनी जीवनी न लिखकर 'जीवन-यात्रा’ लिखी है, यह क्यों? अपनी लेखनी द्वारा मैंने उस जगत की भिन्न-भिन्न गतियों और विचित्रताओं को अंकित करने की कोशिश की है, जिसका अनुमान हमारी तीसरी पीढ़ी मुश्किल से करेगी।’’ '

Tuesday, 26 September 2017

इत्सिंग की भारत यात्रा-संतराम बी.ए

इत्सिंग एक चीनी यात्री एवं बौद्ध भिक्षु था, जो ६७१-६९५ ई. में भारत आया था। वह ६७५ ई में सुमात्रा के रास्ते समुद्री मार्ग से भारत आया था और 10 वर्षों तक 'नालन्दा विश्वविद्यालय' में रहा था। उसने वहाँ के प्रसिद्ध आचार्यों से संस्कृत तथा बौद्ध धर्म के ग्रन्थों को पढ़ा।
691 ई. में इत्सिंग ने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ 'भारत तथा मलय द्वीपपुंज में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण' लिखा। उसने 'नालन्दा' एवं 'विक्रमशिला विश्वविद्यालय' तथा उस समय के भारत पर प्रकाश डाला है। इस ग्रन्थ से हमें उस काल के भारत के राजनीतिक इतिहास के बारे में तो अधिक जानकारी नहीं मिलती, परन्तु यह ग्रन्थ बौद्ध धर्म और 'संस्कृत साहित्य' के इतिहास का अमूल्य स्रोत माना जाता है।

Sunday, 17 September 2017

न जन्म न मृत्यु -ओशो

जो भी जन्‍मता है, वह मरता है। जो भी उत्‍पन्‍न होता है, वह विनष्‍ट होता है। जो भी निर्मित होगा, वह बिखरेगा, समाप्त होगा। हमारे सुख-दुख, हमारी इस भ्रांति से जन्‍मते हैं कि जो भी मिला है वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता है, तो सुख मिलता है, लेकिन जो आकर मिलेगा, वह जाएगा। जहां मिलन है वहां विरह है मिलने में विरह को देख लें तो उसके मिलने का सुख विलीन हो जाता है और उसके विरह का दुख भी विलीन हो जाता है। जो जन्‍म में मृत्‍यु को देख ले उससे जन्म की सुखी विदा हो जाती है, उसकी मृत्‍यु का दुख हो जाता है और जहां सुख और दुख विदा हो जाते हैं वहां जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही आनंद है।

पुतलीमहल या गुलाबकुंवारी-रामलाल वर्म्मा

  पुतलीमहल या गुलाबकुंवारी-रामलाल वर्म्मा  

वन देवी-बालदत्त पांडेय

वन देवी-बालदत्त पांडेय
वन देवी-बालदत्त पांडेय

Saturday, 9 September 2017

छत्रसाल- एक ऐतिहासिक उपन्यास -बालचंदनानचंद शाह

बुंदेलखंड में कई प्रतापी शासक हुए हैं। बुंदेला राज्‍य की आधारि‍शला रखने वाले चंपतराय के पुत्र छत्रसाल महान शूरवीर और प्रतापी राजा थे। छत्रसाल का जीवन मुगलों की सत्ता के खि‍लाफ संघर्ष और बुंदेलखंड की स्‍वतंत्रता स्‍थापि‍त करने के लि‍ए जूझते हुए नि‍कला। महाराजा छत्रसाल अपने जीवन के अंतिम समय तक आक्रमणों से जूझते रहे। बुंदेलखंड केशरी के नाम से वि‍ख्‍यात महाराजा छत्रसाल के बारे में ये पंक्तियां बहुत प्रभावशाली है:
इत यमुना, उत नर्मदा, इत चंबल, उत टोंस।
छत्रसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस॥

यह  एक ऐतिहासिक उपन्यास है जो बुंदेलखंड के परतपी शशक के जीवन पर आधारित है । 
छत्रसाल-बालचंदनानचंद शाह
छत्रसाल-बालचंदनानचंद शाह

मानव की कहानी : राहुल सांकृत्यायन

राहुल संकृतायन जी द्वारा यह रचना उपन्यास की तरह किया गया है जो मानव के विकाश की कहानी के बारे मे बताता है । 

मानव की कहानी : राहुल सांकृत्यायन

मानव की कहानी : राहुल सांकृत्यायन


The Adventure of Physics – Vol-1 Fall, Flow and Heat

Monday, 4 September 2017

ओथेलो – विलियम शेक्सपियर

विश्व साहित्य के गौरव, अंग्रेज़ी भाषा के अद्वितीय नाटककार शेक्सपियर का जन्म 26 अप्रैल, 1564 ई. को इंग्लैंड के स्ट्रैटफोर्ड-ऑन-एवोन नामक स्थान में हुआ। उनके पिता एक किसान थे और उन्होंने कोई बहुत उच्च शिक्षा भी प्राप्त नहीं की। इसके अतिरिक्त शेक्सपियर के बचपन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। 1582 ई. में उनका विवाह अपने से आठ वर्ष बड़ी ऐन से हैथवे से हुआ। 1587 में शेक्सपियर लंदन की एक नाटक कम्पनी में काम करने लगे। वहाँ उन्होंने अनेक नाटक लिखे जिनसे उन्होंने धन और यश दोनों कमाए। 1616 ई में उनका स्वर्गवास हुआ। 
ऑथेलो’ एक दुःखान्त नाटक है। शेक्सपियर ने इसे सन् 1601 से 1608 के बीच लिखा था। यह समय शेक्सपियर के नाट्य-साहित्य के निर्माण-काल में तीसरा काल माना जाता है जबकि उसके अपने प्रसिद्ध दुःखान्त नाटक लिखे थे। इस काल के नाटक प्रायः निराशा से भरे हैं। ‘ऑथेलो’ की कथा सम्भवतः शेक्सपियर से पहले भी प्रचलित थी। दरबारी नाटक-मण्डली ने राजा जेम्स प्रथम के समय में पहली नवम्बर 1604 ई. को सभा में ‘वेनिस का मूर’ नामक नाटक खेला था। शेक्सपियर ने भी ‘ऑथेलो’ नाटक का दूसरा नाम-‘वेनिस का मूर’ ही रखा है। सम्भवतः यह शेक्सपियर का ही नाटक रहा हो। कथा का मूल स्रोत सम्भवतः 1566 ई. में प्रकाशित जिराल्डी चिन्थियो की ‘हिकैतोमिथी’ पुस्तक से लिखा गया है। अंग्रेज़ी साहित्य में इस कथा का शेक्सपियर के अतिरिक्त कहीं विवरण प्राप्त नहीं होता। शेक्सपियर की कथा और चिन्थिओ की कथा में काफी अन्तर है............

ओथेलो – विलियम शेक्सपियर ओथेलो – विलियम शेक्सपियर 



Sunday, 27 August 2017

हमे कैसे पता चला प्रकाश के गति के बारे मे ? - आइसक असिमोव

आवाज़ तेरी है-राजेंद्र यादव

प्रमुख कृतियाँ

उपन्यास
  • सारा आकाश
  • उखड़े हुए लोग
  • शह और मात
  • एक इंच मुस्कान
  • कुलटा
  • अनदेखे अनजाने पुल
  • मंत्र विद्ध
  • स्वरूप और संवेदना
  • एक था शैलेन्द्र
कहानी संग्रह
  • देवताओं की मूर्तियां
  • खेल खिलौने
  • जहां लक्ष्मी कैद है
  • छोटे-छोटे ताजमहल
  • किनारे से किनारे तक
  • टूटना
  • ढोल और अपने पार
  • वहां पहुंचने की दौड़
कविता संग्रह
  • आवाज़ तेरी है
आलोचना
  • कहानी : अनुभव और अभिव्यक्ति
  • कांटे की बात - बारह खंड
  • प्रेमचंद की विरासत
  • अठारह उपन्यास
  • औरों के बहाने
  • आदमी की निगाह में औरत
  • वे देवता नहीं हैं
  • मुड़-मुड़के देखता हूं
  • अब वे वहां नहीं रहते
  • काश, मैं राष्ट्रद्रोही होता
आवाज तेरी है -राजेंद्र यादव
आवाज तेरी है -राजेंद्र यादव

Saturday, 26 August 2017

गदर के फूल-अमृत लाल नागर


यशस्वी साहित्यकार अमृतलाल नागर की यह कृति ‘गदर के फूल’ सत्तावनी क्रान्ति संबंधी स्मृतियों और किंवदंतियों का प्रामाणिक दस्तावेज है।भारत की स्वतन्त्रता के लिए 1857 में क्रान्ति की एक चिंगारी भड़की थी जिसे अंग्रेजों ने ‘गदर’ का नाम दिया था। उस काल के व्यक्ति अब छीजते जा रहे हैं। उन्हीं स्मृतियों को नागर जी ने इस पुस्तक में संजोया है।अवध में घूम-घूमकर, उस काल के प्रत्यक्षदर्शी लोगों के संस्मरणों के माध्यम से तथा अन्य उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों को आधार बनाकर नागर जी ने इस पुस्तक की सामग्री का संचयन किया है।



गदर के फूल-अमृत लाल नागर
गदर के फूल-अमृत लाल नागर

Tuesday, 22 August 2017

परशुराम-नरोतम व्यास

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक मुनि थे। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका के सबसे छोटे पुत्र हैं इस समय वो महेंद्रगिरि नामक पर्वत पर आज भी अपने सुक्ष्म शरीर से तपस्या में लीन हैं. पूर्व काल में क्षत्रिय राजा बहुत अत्याचारी और तामसी प्रवर्ती के हो गये थे तब नारायण ने अपने अंश से परशुराम रुप में अवतार लिया और पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय राजाओं से रहित कर दिया (सम्पूर्ण क्षत्रियों से नहीं वरन् मात्र क्षत्रिय राजाओं का सेना सहित अंत कर दिया था). जब क्षत्रिय राजाओं की शक्ति बढ गई और उन्हें किसी बात का डर नहीं रहा, क्युँकि यदा कदा मानवों और पृथ्वी पर अत्याचार करने वाले दानव, देवताओं से डरे हुए थे और वो छुप कर रहते थे. क्षत्रिय समाज को पहले तो दानवों और देवताओं का डर था, लेकिन जब दानव शांत थे तो देवता भी शांत बैठ गये, तब पृथ्वी में क्षत्रिय समाज के राजा धीरे-धीरे निर्कुंश होते गये, प्रजा को भी तंग करने लगे. इसके अतिरिक्त कई दानव भी क्षत्रिय कुल में जन्म लिये, जो ब्राह्मण नीति की बातों से उनका विरोध करता था उनको भी अपमानित करने लगे. ऐसे ही क्षत्रियों में एक राजा था सहस्त्रबाहु अर्जुन, जिसका उल्लेख पहले हो चुका है जिसने रावण को कैद कर लिया था. वो इतना निर्कुंश हो गया था कि एक बार वो अपनी सैनिकों के साथ कहीं जा रहा था रास्ते में आश्रम देखा और उसने घमण्ड और अहंकार में बिना कारण न जाने क्युँ आश्रम को पानी से भर दिया. उसी समय एक बाहर से एक मुनि आये और उन्होने देखा सहस्त्रबाहू अपनी शक्ति का प्रयोग करके आश्रम में पानी भर दिया तो उन्होंने पूछा ये क्या कर रहे हो और क्युं कर रहे हो देखते नहीं ये मेरा आश्रम है. सहस्त्रबाहू बडी धृष्ठता के साथ ठहाके लगा कर हँसने लगा उसे पता भी नहीं था कि ये महर्षि वशिष्ठ हैं. महर्षि वशिष्ठ ने सहस्त्रबाहु अर्जुन को उसकी हरकत पर डपट दिया, तो वो अभिमान मे बोला आप दुबले पतले ब्राह्मण हो, नहीं तो मैं इस वक्त आपको दंड देता कि मुझसे इस तरह बात करने का नतीजा क्या हो सकता है. इस अर्जुन को दत्तात्रेय भगवान से वरदान प्राप्त था कि युद्द करते समय उसके एक हजार हाथ हो जाएंगे इसलिये उसका नाम सहस्त्रबाहु भी हो गया, उसकी इस मूर्खता पर महर्षी ने उसे कहा चिंता मत कर तुम और तुम्हारे जैसे घमण्डी लोग जो ब्राह्मणों को बाहुबल में कमजोर मानते हैं और उपहास या अपमान करते हैं उन सबको शीघ्र ऐसा ब्राह्मण मिलेगा जो अपने बाहुबल से ही तुम सब का अंत करेगा.  परशुराम वही बाहुबली ब्राह्मण थे. अपने पिता के सबसे बडे आज्ञाँकारी बालक, एक दिन उनके पिता जमदग्नि यज्ञ के लिये परशुराम की माता रेणुका से कहा, वो समिधा ले आए पास के वन से. लेकिन वो समय पर नहीं आई और यज्ञ का समय निकल गया. इस पर जमदग्नि ने रेणुका से कारण पूछा कि वो देर से क्युँ आई इस पर रेणुका ने झूठ बोल दिया कि उसे समिधा नहीं मिल पाई और वो काफी आगे निकल गई थी जबकि रेणुका समिधा एकत्र करने के बाद वन में एक नदी के किनारे गंधर्वों को उनकी पत्नीयों के साथ तैराकी करते देखने में ही समय बीत गया था उसे समय का पता ही नहीं चला. महर्षि जमदग्नि ने ध्यान से सब कुछ जान लिया तब उन्हें रेणुका के झूठ बोलने पर क्रोध आया उन्होंने अपने पुत्रों को बुलाया और एक-एक कर सबको कहा कि तुम्हारी माता ने झूठ बोला है अत: अपनी माता का सर काट डालो. बांकी पुत्रों में किसी ने आज्ञाँ नहीं मानी लेकिन जब परशुराम से कहा कि अपनी माता के साथ इन भाइयों का सर भी काट डालो तो उन्होंने बिना विलम्ब के अपनी माँ का और सभी भाइयों का सर काट दिया. महर्षि प्रसन्न हो गये उन्होंने कहा पुत्र तुमने मेरी आज्ञाँ का पालन किया मैं इस बात से बहुत प्रसन्न हूँ तुम मुझसे वरदान माँगो. तब परशुराम जी ने कहा कि मेरी माँ और भाई पुन: जिवित हो जाए लेकिन उनको इस बात की याद न रहे कि उनका सर मैंने काटा था. महर्षी ने वैसा ही किया उनकी माता और भाई को पुन: जिवित कर दिया और उन्हें इस बात का पता भी नहीं चला. तब परशुराम अपने माता पिता से आज्ञाँ ले कर तीर्थ की ओर चल पडे, उन्होंने तपस्या के बल पर मन की गति से किसी भी लोक में जाने की शक्ति प्राप्त की और तपस्या के बल पर कई पुण्य अर्जित कर लिये. एक दिन उनके पिता जमदग्नि ध्यान मे बैठे थे, सहस्त्रबाहु अर्जुन ऊधर से अपनी सेना लेकर जा रहा था और फिर महर्षि के आश्रम में आया, महर्षि ने अर्जुन का सम्मान किया. अर्जुन ने महर्षि के आश्रम में दिव्य गौ कामधेनु को देखा तो उसने मुनि से कहा आप इस कामधेनु को मुझे दे दिजिये. इस पर मुनि ने असहमति जताई और कहा कि उन्हें कुछ काल तक ही इस गौ की सेवा का अवसर दिया गया है और यह गौ सप्तऋषियों की है, लेकिन अर्जुन बल पूर्वक कामधेनु को ले गया. ईधर परशुराम आये और उन्हें बात पता चली तो वो अर्जुन के राजमहल की ओर दौडे और सहस्त्रबाहू अर्जुन को गाय वापस  करने के लिये कहा, लेकिन अभिमान में भरा राजा ने कहा गौ वापस नहीं दुंगा,और तुम कौन हो वापस जाओ. मैं राजा हूँ और राजा का प्रजा की प्रत्येक वस्तु पर अधिकार है इसलिये वापस जाओ नहीं तो बंदी बना कर कारागार में बंद कर दुंगा और सैनिकों से कहा बाहर का रास्ता दिखाओ इसे. इस बात पर परशुराम जी ने क्रोध ने क्षण भर में ही उसके सैनिकों को काट-काट कर समाप्त कर डाला. सहस्त्रबाहु क्रोध से अपने एक हजार हाथ के साथ खडा हुआ और भीषण युद्ध छिड गया महल के बाहर एक तरफ परशुराम अकेले और दुसरी तरफ सहस्त्रबाहु उसके दस हजार पुत्र और हजारों की संख्या में सैनिक थे. जिसे भगवान दत्तात्रेय का आशिर्वाद प्राप्त था कि कोई क्षत्रिय राजा पृथ्वी में उसे ना हरा सकता है और ना उसे प्राक्रम में पीछे छोड सकता है आज वो अपने कई अस्त्र-शस्त्रों के होते अपने अभिमान और अहंकार के चलते परशुराम जी के सामने टिक न सका और परशुराम जी ने उसके महल के बाहर ही उसके एक हजार हाथ काट डाले और उसका अंत कर दिया. उसके दस हजार पुत्रों में से कुछ ही बचे अन्य सब मारे गये. परशुराम अपनी गाय कामधेनु को वापस ले आये और पिताजी को दे दी. सब समाचार सुनाया. महर्षि जमदग्नि ने कहा कि पुत्र तुमने एक राजा की हत्या करके ठीक नहीं किया, इस पर परशुराम जी ने कहा  कि पिताजी उसे मारना मैं भी नहीं चाहता था किंतु शुरुवाद उसकी ओर से हुई और मुझे बंदी बनाने का आदेश उसने ही दिया था और एक मुनि की गाय को जबरन छिन लेना एक राजा का अधर्म है. सहस्त्रबाहु धर्म पारायण भी नहीं रहा था, वो अभिमानी और अहंकारी हो चुका था.
एक दिन अर्जुन के आठ या दस पुत्र जो जिवित बचे थे, उन्हें पता चला  परशुराम तीर्थ यात्रा पर गये हैं अत: उन्होंने अपने पिता सहस्त्रबाहु की मृत्यु का बदला लेने के लिये इसे उपयुक्त अवसर समझा. आश्रम में मुनि और उनकि पत्नी रेणुका के अलावा कोई नहीं था, मुनि ध्यान में बैठे थे तब सहस्त्रबाहु के पुत्रों ने मुनि का सर काट दिया और रेणुका को भी पीट गये. रेणुका ने अपने पुत्र परशुराम को पुकारा जो उस वक्त तपस्या में लीन थे. लेकिन माँ की आवाज उनके कानों तक पहुंच गई और मन की शक्ति से चलने वाले महर्षि क्षण भर में अपने घर पहुंचे और सब कुछ माँ के मुँह से सुना, तब क्रोध में अपने पिता की देह को अपने भाइयों को सौंप कर वे सहस्त्रबाहु के पुत्रों की ओर बडे वेग से आकाश मार्ग से उनके महल में पहुँच गये, उनको आया देख सब भय ग्रस्त हो गये और फिर परशुराम जी पर आक्रमण कर दिया. लेकिन कुछ ही समय में समूची सेना को परशुरामजी ने समाप्त कर दिया अंत में सहस्त्रबाहु के सभी पुत्रों को समाप्त कर डाला. वापस आकर अपने पिता के मस्तक को जोडने के लिये अपने पिता के शरीर और मस्तक को लेकर कुरुक्षेत्र गये वहाँ यज्ञ किया, यज्ञ के लिये चार दिशाओं को क्रमश: ब्रह्मा और आचार्य नियुक्त किया. यज्ञ के अंत में महर्षी जमदग्नि के सर को पुन: जोड्कर मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा जिवित कर दिया और अपने पिता जमदग्नि को सप्तऋषी  मंडल में सातवें सप्त ऋषि के रुप में प्रतिष्ठित कर दिया तथा सहस्त्रबाहु के राज्य को ब्राह्मणों को दान में दे दिया. सहस्त्रबाहु उस वक्त का सबसे शक्तिशालि क्षत्रिय राजा था अन्य क्षत्रिय राजाओं को परशुराम का प्राक्रम सहन नहीं हुआ, उन्हें एक ब्राह्मण के द्वारा एक सबसे शक्तिशाली क्षत्रिय राजा का युँ पराजित होना, सम्पूर्ण क्षत्रिय समाज का अपमान लगने लगा. अत: एक दिन योजनाबद्ध तरीके से सभी क्षत्रिय राजाओं ने मिलकर परशुराम पर आक्रमण कर दिया, लेकिन परशुराम के आगे सम्पूर्ण क्षत्रिय समाज के जितने भी घमण्डी वीर थे वो नहीं टिक सके और भाग खडे हुए. तब उनकी इस हरकत पर परशुराम को इतना क्रोध आया कि उन्होंने निश्चय किया और संकल्प लिया कि अब वो पृथ्वी पर एक भी क्षत्रिय राजा को जिवित नहीं छोडेंगे और उन्होंने सभी क्षत्रिय राजाओं का नामो निशान पृथ्वी से मिटा दिया और सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मणों को दान मे दे दी. स्वयं तप करने चले गये और हजारों वर्ष तक तप में लीन रहे, इतने समय में ब्रह्मा जी की प्रेरणा से  ब्राह्मणों ने पुन: क्षत्रियों को क्षिक्षित दीक्षित करके राजा बनाया, उनको जो भूमि परशुराम जी ने दान में मिली थी उसे क्षत्रिय राजाओं को दिया ताकि पृथ्वी पर सही ढंग से व्यवस्था चलती रहे. हजारों साल के बाद जब तपस्या से परशुराम ऊठे और देखा कि फिर से क्षत्रिय राजा बने हैं, बस इस बात पर उन्होंने फिर से एक बार और पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से रहित कर दिया और फिर से  तप करने चले गये. फिर से वही कहाँनी हुई और परशुराम जी ने इस तरह ईक्कीस बार समूची पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से विहिन कर दिया. और इस बार ब्रह्मा जी ने महर्षि कश्यप को बुलाया और कहा कि परशुराम को सम्भालो, ईक्कीसवीं बार वो क्षत्रिय राजाओं का संहार कर चुके हैं अब बहुत हुआ. राजा के बिना राज्य नहीं छोडा जा सकता हैं प्रजा में समाज में धर्म का पालन राजा को ही करवाना होता है इसलिये राजा का होना आवश्यक है. आप उनके गुरु हैं और आपकी बात वो मानेगें. तब ब्रह्मदेव की आज्ञाँ मानकर महर्षि कश्यप आये और परशुराम जी ने उनकी चरण वंदना की और समूची पृथ्वी महर्षी कश्यप को दान में दे दी. महर्षि कश्यप ने कहा मैं दान स्वीकार करता हूँ अब यह मेरे अधिकार में है अत: आज के बाद तुम मेरी इस धरती पर पैर भी नहीं रखोगे और ना ही कभी रात्रि में भी यहाँ विश्राम करोगे. परशुराम जी ने आज्ञाँ स्वीकार कर ली और आकाश मार्ग से समुद्र के निकट गये और अपने रहने के लिये स्थान देने को कहा. तब समुद्र ने भयग्रस्त हो कर बिना देरी किये कहा महर्षि आप आप को जितनी भूमि चाहिये उसके लिये आप अपना फरसा मेरी तरफ समुद्र में फेंक दें  मैं आपको अपने गर्भगृह से उतनी धरती दे सकुंगा महर्षि ने कहा  ठीक है परंतु जब मैं मांगू तो मेरा फरसा मुझे वापस भी दे देना और अपना फरसा समुद्र में फेंक दिया तब समुद्र ने अपने गर्भगृह से महेंद्रगिरि पर्वत को पृकट किया और महर्षि परशुराम उस पर्वत पर पुन: तपस्या में लीन हो गये और आज भी वो वहाँ अपने सूक्ष्म रुप में रहते हैं. 
Ref “प्रबोध शक्ति” by चंद्रशेखर पंत 
राजा रवि वर्मा द्वारा परशुराम जी का चित्र।
वे शस्त्रविद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्मद्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। इच्छित फल-प्रदाता परशुराम गायत्री है-"ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।" वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूयाअगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।












                                                                           परशुराम-नरोतम व्यास
परशुराम-नरोतम व्यास