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Tuesday, 28 March 2017

124. सुहाग के नूपुर-अमृत लाल नागर

“सारा इतिहास सच-सच ही लिखा है, देव! केवल एक बात अपने महाकाव्य में और जोड़ दीजिये – पुरुष जाति के स्वार्थ और दंभ-भरी मुर्खता से ही सारे पापों का उदय होता है। उसके स्वार्थ के कारण ही उसका अर्धांग – नारी जाति – पीड़ित है। एकांगी दृष्टिकोण से सोचने के कारण ही पुरुष न तो स्त्री को सटी बनाकर सुखी कर सका और न वेश्या बनाकर। इसी कारण वह स्वयं भी झकोले खाता है और खाता रहेगा। नारी के रूप में न्याय रो रहा है, महाकवि! उसके आंसुओं में अग्निप्रलय भी समाई है और जल प्रलय भी!”

महास्थिर और महाकवि दोनों ही आश्चर्यचकित हो उसे देखने लगे। सहसा महाकवि ने पूछा, “तुम माधवी हो?”

“मैं नारी हूँ – मनुष्य समाज का व्यथित अर्धांग।” पगली कहकर चैत्यगृह के ओर चली गई।


DOWNLOAD- सुहाग के नूपुर-अमृत लाल नागर
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2 comments:

  1. Waah..bahut hi umda book... Dhanyawad Raviji ek aur achhi book upload karne k liye...

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