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Tuesday, 30 August 2016

28. काकी-सियारामशरण गुप्त

यह कहानी एक कालजयी रचना है जो बल मन को उदगर करता है----

सियारामशरण गुप्त का सेठ रामचरण कनकने के परिवार में श्री मैथिलीशरण गुप्त के अनुज रुप में चिरगाँवझांसी में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने घर में ही गुजरातीअंग्रेजी और उर्दू भाषा सीखी। सन् १९२९ ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और कस्तूरबा गाँधी के सम्पर्क में आये। कुछ समय वर्धा आश्रम में भी रहे। सन् १९४० में चिरगांव में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का स्वागत किया। वे सन्त विनोबा भावे के सम्पर्क में भी आये। उनकी पत्नी तथा पुत्रों का निधन असमय ही हो गया था अतः वे दु:ख वेदना और करुणा के कवि बन गये। १९१४ में उन्होंने अपनी पहली रचना मौर्य विजय लिखी।


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Monday, 29 August 2016

27. पूस की रात

Poos Ki Rat, premchand ji ka ek kaljai rachna hai jo... manusya aur pashu ke bich ka prem sambandh ko darshata hai sath hi kisan jivan ke muskil aur ek girhini ka muskil aur bibasta ko pralakshit karta hai.....      
                                                       
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26. आचार्य उपगुप्त-चतुरसेन

चतुरसेन जी का एक और ऐतिहासिक उपन्यास 
उपगुप्त प्राचीन समय में मथुरा नगरी का एक विख्यात बौद्ध धर्माचार्य था। सम्राट अशोक को बौद्ध धर्म का प्रचार करने और स्तूप आदि को निर्मित कराने की प्रेरणा धर्माचार्य उपगुप्त ने ही दी। जब उपगुप्त युवा थे, तब इन पर एक गणिका वासवदत्ता मुग्ध हो गई थी। उपगुप्त ने उस गणिका को सन्मार्ग की ओर प्रेरित किया।
  • जब भगवान बुद्ध दूसरी बार मथुरा आये थे, तब उन्होंने भविष्यवाणी की और अपने प्रिय शिष्य आनंद से कहा कि- "कालांतर में यहाँ उपगुप्त नाम का एक प्रसिद्ध धार्मिक विद्वान होगा, जो उन्हीं की तरह बौद्ध धर्म का प्रचार करेगा और उसके उपदेश से अनेक भिक्षु योग्यता और पद प्राप्त करेंगे।"
  • भविष्यवाणी के अनुसार उपगुप्त ने मथुरा के एक वणिक के घर जन्म लिया। उसका पिता सुगंधित द्रव्यों का व्यापार करता था।
  • उपगुप्त अत्यंत रूपवान और प्रतिभाशाली था। वह किशोरावस्था में ही विरक्त होकर बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया।
  • आनंद के शिष्य शाणकवासी ने उपगुप्त को मथुरा के नट-भट विहार में बौद्ध धर्म के सर्वास्तिवादी संप्रदाय की दीक्षा दी थी।
  • 'बोधिसत्वावदानकल्पलता' में उल्लेख है कि उपगुप्त ने 18 लाख व्यक्तियों को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था।
  • बौद्ध परंपरा के अनुसार उपगुप्त सम्राट अशोक के धार्मिक गुरु थे और इन्होंने ही अशोक को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी थी।
  • 'दिव्यावदान' के अनुसार चंपारन, लुंबिनीवन, कपिलवस्तुसारनाथकुशीनगरश्रावस्तीजेतवन आदि बौद्ध तीर्थ स्थलों की यात्रा के समय उपगुप्त अशोक के साथ थे।
  • उल्लेख मिलता है कि पाटलिपुत्र में आयोजित तृतीय बौद्ध संगीति में उपगुप्त भी विद्यमान थे। इन्होंने ही उक्त संगीति का संचालन किया और कथावस्तु की रचना अथवा संपादन किया। संभवत: इसीलिए कुछ विद्वानों में मोग्गलिपुत्त तिस्स तथा उपगुप्त को एक ही मान लिया गया है, क्योंकि अनेक बौद्ध ग्रंथों में तृतीय संगीति के संचालन एवं कथावस्तु के रचनाकार के रूप में तिस्स का ही नाम मिलता है।

Sunday, 28 August 2016

25. COPYRIGHT

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24. वैशाली की नगरवधू


कहानी आम्रपाली की, जिसे उसकी खूबसूरती ने बना दिया था नगरवधू


आम्रपाली के जैविक माता-पिता का तो पता नहीं लेकिन जिन लोगों ने उसका पालन किया उन्हें वह एक आम के पेड़ के नीचे मिली थी, जिसकी वजह से उसका नाम आम्रपाली रखा गया। वह बहुत खूबसूरत थी, उसकी आंखें बड़ी-बड़ी और काया बेहद आकर्षक थी।  जो भी उसे देखता था वह अपनी नजरें उस पर से हटा नहीं पाता था. लेकिन उसकी यही खूबसूरती, उसका यही आकर्षण उसके लिए श्राप बन गया। एक आम लड़की की तरह वो भी खुशी-खुशी अपना जीवन जीना चाहती थी लेकिन ऐसा हो नहीं सका। वह अपने दर्द को कभी बयां नहीं कर पाई और अंत में वही हुआ जो उसकी नियति ने उससे करवाया।
आम्रपाली जैसे-जैसे बड़ी हुई उसका सौंदर्य चरम पर पहुंचता गया जिसकी वजह से वैशाली का हर पुरुष उसे अपनी दुल्हन बनाने के लिए बेताब रहने लगा। लोगों में आम्रपाली की दीवानगी इस हद तक थी की वो उसको पाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। यही सबसे बड़ी समस्या थी। आम्रपाली के माता-पिता जानते थे की आम्रपाली को जिसको भी सौपा गया तो बाकी के लोग उनके दुश्मन बन जाएंगे और वैशाली में खून की नदिया बह जाएंगी। इसीलिए वह किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहे थे।
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इसी समस्या का हल खोजने के लिए एक दिन वैशाली में सभा का आयोजन हुआ। इस सभा में मौजूद सभी पुरुष आम्रपाली से विवाह करना चाहते थे जिसकी वजह से कोई निर्णय लिया जाना मुश्किल हो गया था। इस समस्या के समाधान हेतु अलग-अलग विचार प्रस्तुत किए गए लेकिन कोई इस समस्या को सुलझा नहीं पाया।
लेकिन अंत में जो निर्णय लिया गया उसने आम्रपाली की तकदीर को अंधेरी खाइयों में धकेल दिया। सर्वसम्मति के साथ आम्रपाली को नगरवधू यानि वेश्या घोषित कर दिया गया। ऐसा इसीलिए किया गया क्योंकि सभी जन वैशाली के गणतंत्र को बचाकर रखना चाहते थे। लेकिन अगर आम्रपाली को किसी एक को सौंप दिया जाता तो इससे एकता खंडित हो सकती थी। नगर वधू बनने के बाद हर कोई उसे पाने के लिए स्वतंत्र था।  इस तरह गणतंत्र के एक निर्णय ने उसे भोग्या बनाकर छोड़ दिया।
लेकिन आम्रपाली की कहानी यही समाप्त नहीं होती है। आम्रपाली नगरवधू बनकर सालो तक वैशाली के लोगों का मनोरंजन करती है लेकिन जब एक दिन वो भगवान बुद्ध के संपर्क में आती है तो सबकुछ छोड़कर एक बौद्ध भिक्षुणी बन जाती है-----
DOWNLOAD-वैशाली की नगरवधू

23. विर्ह्द विमान शाश्त्र

जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि वे जंगलों में रहते थे, जटाजूटधारी थे, भगवा वस्त्र पहनते थे, झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-चिन्तन में निमग्न रहते थे, सांसारिकता से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था।
इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।
महर्षि भारद्वाज और कोई नही बल्कि वही  ऋषि है जिन्हें त्रेता युग में  भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य दो बार प्राप्त हुआ । एक बार श्री राम के  वनवास काल में तथा दूसरी बार श्रीलंका से लौट कर अयोध्या जाते समय। इसका वर्णन वाल्मिकी रामायण तथा तुलसीदास कृत रामचरितमानस में मिलता है |
 तीर्थराज प्रयाग में संगम से थोड़ी दूरी पर इनका आश्रम था, जो आज भी विद्यमान है। महर्षि भरद्वाज की दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें से एक (सम्भवत: मैत्रेयी) महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्याही थीं और दूसरी इडविडा (इलविला) विश्रवा मुनि को |
महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था । न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी | इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वांग्मय में मिलते हैं । 
निश्चित रूप से उस समय ऐसी विद्या अस्तित्व में थी जिसके द्वारा भारहीनता (zero gravity) की स्थति उत्पन्न की जा सकती थी । यदि पृथ्वी की गरूत्वाकर्षण शक्ति का उसी मात्रा में विपरीत दिशा में प्रयोग किया जाये तो भारहीनता उत्पन्न कर पाना संभव है |
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती " इन्द्रविजय " नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । पुराणों में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरासुर याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया ।

 वेदों मे विमान संबंधी उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलते हैं। ऋषि देवताओं द्वारा निर्मित तीन पहियों के ऐसे रथ का उल्लेख ऋग्वेद (मण्डल 4, सूत्र 25, 26) में मिलता है, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करता है। ऋषिओं ने मनुष्य-योनि से देवभाव पाया था। देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा निर्मित पक्षी की तरह उडऩे वाले त्रितल रथ, विद्युत-रथ और त्रिचक्र रथ का उल्लेख भी पाया जाता है। महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है ।

वाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक विमान’ (जो लंकापति रावण के पास था) के नाम से तो प्राय: सभी परिचित हैं। लेकिन इन सबको कपोल-कल्पित माना जाता रहा है। लगभग छह दशक पूर्व सुविख्यात भारतीय वैज्ञानिक डॉ0 वामनराव काटेकर ने अपने एक शोध-प्रबंध में पुष्पक विमान को अगस्त्य मुनि द्वारा निर्मित बतलाया था, जिसका आधार `अगस्त्य संहिता´ की एक प्राचीन पाण्डुलिपि थी। अगस्त्य के `अग्नियान´ ग्रंथ के भी सन्दर्भ अन्यत्र भी मिले हैं। इनमें विमान में प्रयुक्त विद्युत्-ऊर्जा के लिए `मित्रावरुण तेज´ का उल्लेख है। महर्षि भरद्वाज ऐसे पहले विमान-शास्त्री हैं, जिन्होंने अगस्त्य के समय के विद्युत् ज्ञान को अभिवर्द्धित किया। 
 महर्षि भारद्वाज ने " यंत्र सर्वस्व " नामक ग्रंथ लिखा था, जिसमे सभी प्रकार के यंत्रों के बनाने तथा उन के संचालन का विस्तृत वर्णन किया। उसका एक भाग वैमानिक शास्त्र है |
इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख है अगस्त्यकृत - शक्तिसूत्र, ईश्वरकृत - सौदामिनी कला, भरद्वाजकृत - अशुबोधिनी, यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र, शाकटायन कृत - वायुतत्त्व प्रकरण, नारदकृत - वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि ।

 विमान शास्त्र की टीका लिखने वाले बोधानन्द लिखते है -
 निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः । 
 नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम्‌ ।
 प्रायच्छत्‌ सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम्‌ ।
 तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम्‌ ॥ 
 नाविमानर्वैचित्र्‌यरचनाक्रमबोधकम्‌ । 
 अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम । 
 सूत्रैः पञ्‌चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम्‌ । 
 वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम्‌ ॥ 

अर्थात - भरद्वाज महामुनि ने वेदरूपी समुद्र का मन्थन करके यन्त्र सर्वस्व नाम का ऐसा मक्खन निकाला है , जो मनुष्य मात्र के लिए इच्छित फल देने वाला है । उसके चालीसवें अधिकरण में वैमानिक प्रकरण जिसमें विमान विषयक रचना के क्रम कहे गए हैं । यह ग्रंथ आठ अध्याय में विभाजित है तथा उसमें एक सौ अधिकरण तथा पाँच सौ सूत्र हैं तथा उसमें विमान का विषय ही प्रधान है । ग्रंथ के बारे में बताने के बाद बोधानन्द भरद्वाज मुनि के पूर्व हुए आचार्य व उनके ग्रंथों के बारे में लिखते हैं |  वे आचार्य तथा उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं ।
( १ ) नारायण कृत - विमान चन्द्रिका ( २ ) शौनक कृत न् व्योमयान तंत्र ( ३ ) गर्ग - यन्त्रकल्प ( ४ ) वायस्पतिकृत - यान बिन्दु + चाक्रायणीकृत खेटयान प्रदीपिका ( ६ ) धुण्डीनाथ - व्योमयानार्क प्रकाश 
  
विमान की परिभाषा देते हुए अष् नारायण ऋषि कहते हैं जो पृथ्वी, जल तथा आकाश में पक्षियों के समान वेग पूर्वक चल सके, उसका नाम विमान है ।
शौनक के अनुसार- एक स्थान से दूसरे स्थान को आकाश मार्ग से जा सके ,
विश्वम्भर के अनुसार - एक देश से दूसरे देश या एक ग्रह से दूसरे ग्रह जा सके, उसे विमान कहते हैं ।  
अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत शोध मण्डल ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज के विशेष प्रयास किये। फलस्वरूप् जो ग्रन्थ मिले, उनके आधार पर भरद्वाज का `विमान-प्रकरण´, विमान शास्त्र प्रकाश में आया। इस ग्रन्थ का बारीकी से अध्यन करने पर आठ प्रकार के विमानों का पता चला : 
1. शक्त्युद्गम - बिजली से चलने वाला। 
2. भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला। 
3. धूमयान - गैस से चलने वाला। 
4. शिखोद्गम - तेल से चलने वाला। 
5. अंशुवाह - सूर्यरश्मियों से चलने वाला। 
6. तारामुख - चुम्बक से चलने वाला। 
7. मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला। 
8. मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला। 


Download Link-विर्हत विमान शाश्त्र

Saturday, 27 August 2016

22. देवर्षि नारद.

नारद मुनि
 हिन्दू शास्त्रों के अनुसार, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गये हैं। ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक-कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य-आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप 'महती' के नाम से विख्यात है। उससे 'नारायण-नारायण' की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म-मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर–अमर हैं। भगवद-भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।

Friday, 26 August 2016

21. पद्म पुराण

महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित संस्कृत भाषा में रचे गए अठारण पुराणों में से एक पुराण ग्रंथ है। सभी अठारह पुराणों की गणना में ‘पदम पुराण’ को द्वितीय स्थान प्राप्त है। श्लोक संख्या की दृष्टि से भी इसे द्वितीय स्थान रखा जा सकता है। पहला स्थान स्कंद पुराण को प्राप्त है। पदम का अर्थ है-‘कमल का पुष्प’। चूंकि सृष्टि रचयिता ब्रह्माजीने भगवान्नारायण के नाभि कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि-रचना संबंधी ज्ञान का विस्तार किया था, इसलिए इस पुराण को पदम पुराण की संज्ञा दी गई है। इस पुराण में भगवान् विष्णु की विस्तृत महिमा के साथ, भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्ण के चरित्र, विभिन्न तीर्थों का माहात्म्य शालग्राम का स्वरूप, तुलसी-महिमा तथा विभिन्न व्रतों का सुन्दर वर्णन है।[1]

पदम-पुराण सृष्टि की उत्पत्ति अर्थात् ब्रह्मा द्वारा सृष्टि की रचना और अनेक प्रकार के अन्य ज्ञानों से परिपूर्ण है तथा अनेक विषयों के गम्भीर रहस्यों का इसमें उद्घाटन किया गया है। इसमें सृष्टि खंड, भूमि खंड और उसके बाद स्वर्ग खण्ड महत्त्वपूर्ण अध्याय है। फिर ब्रह्म खण्ड और उत्तर खण्ड के साथ क्रिया योग सार भी दिया गया है। इसमें अनेक बातें ऐसी हैं जो अन्य पुराणों में भी किसी-न-किसी रूप में मिल जाती हैं। किन्तु पदम पुराण में विष्णु के महत्त्व के साथ शंकर की अनेक कथाओं को भी लिया गया है। शंकर का विवाह और उसके उपरान्त अन्य ऋषि-मुनियों के कथानक तत्व विवेचन के लिए महत्त्वपूर्ण है।[2]
विद्वानों के अनुसार इसमें पांच और सात खण्ड हैं। किसी विद्वान ने पांच खण्ड माने हैं और कुछ ने सात। पांच खण्ड इस प्रकार हैं-
1.सृष्टि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म ने सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में पुलस्त्य से पूछा। पुलस्त्य और भीष्म के संवाद में ब्रह्मा के द्वारा रचित सृष्टि के विषय में बताते हुए शंकर के विवाह आदि की भी चर्चा की।
2.भूमि खण्ड: इस खण्ड में भीष्म और पुलस्त्य के संवाद में कश्यप और अदिति की संतान, परम्परा सृष्टि, सृष्टि के प्रकार तथा अन्य कुछ कथाएं संकलित है।
3.स्वर्ग खण्ड: स्वर्ग खण्ड में स्वर्ग की चर्चा है। मनुष्य के ज्ञान और भारत के तीर्थों का उल्लेख करते हुए तत्वज्ञान की शिक्षा दी गई है।
4. ब्रह्म खण्ड: इस खण्ड में पुरुषों के कल्याण का सुलभ उपाय धर्म आदि की विवेचन तथा निषिद्ध तत्वों का उल्लेख किया गया है। पाताल खण्ड में राम के प्रसंग का कथानक आया है। इससे यह पता चलता है कि भक्ति के प्रवाह में विष्णु और राम में कोई भेद नहीं है। उत्तर खण्ड में भक्ति के स्वरूप को समझाते हुए योग और भक्ति की बात की गई है। साकार की उपासना पर बल देते हुए जलंधर के कथानक को विस्तार से लिया गया है।
5.क्रियायोग सार खण्ड: क्रियायोग सार खण्ड में कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित तथा कुछ अन्य संक्षिप्त बातों को लिया गया है। इस प्रकार यह खण्ड सामान्यत: तत्व का विवेचन करता है।

20. कालिंदी के किनारे-राम कुमार भ्रमर

जैसे-जैसे रथ राजधानी के पास पहुंच रहा है, वैसे-वैसे अस्ति और प्राप्ति की आंखों में कुछ गड़ने लगा है। पहले रेत की कुछ किरकिरी जैसा और फिर समूचा ही रेगिस्तान।... कैसी विचित्र स्थिति है ! तरल आंसू भी रेगिस्तान की तपन और झुलसन का अहसास देने लगते हैं। कितने-कितने विचित्र और दोहरे अर्थों से भरे होते हैं ये आंसू। कभी हर्षामृत बने हुए, कभी लावे का उफ़ान लिए हुए। 

अस्ति और प्राप्ति–दोनों ही बहनों की आँखों मे अनेक बार आए हैं ये आंसू। उस समय भी आए थे, जब इसी मगध देश की राजधानी में मथुराधिपति कंस के साथ विदा होते समय पिता जरासंध से बिलग हुई थीं; किंतु तब अलग अर्थ थे इन आंसुओं के। पतिगृह जाने का उल्लास भी भरा हुआ था इनमें और पितागृह से विदाई का संताप भी। पर आज ?... आज ये आंसू सिर्फ़ पीड़ा, प्रतिशोध और घृणामिश्रित आक्रोश में डूबे हुए ! वर्षाहीन मरुस्थल की तरह तप्त ! अंगारों की तरह झुलसाते हुए। पति-बिछोह के शोक से संतप्त और राजगौरव की गरिमा के धूलि-धूसरित हो जाने की वेदना से छनकते हुए। 

बरसों पूर्व जब इसी राजमार्ग से निकलकर मथुराधिपति कंस की महारानियों के रूप में दोनों बहिनें मथुरा की ओर चली थीं, तब इसी रथ की गड़गड़ाहटें पायलों की झंकार जैसी अनुभव हुई थीं और आज जब वैधव्य का उजाड़ बटोरे हुए पितागृह को लौट रही हैं तब लगता है कि रथ उन्हें बिठाले हुए नहीं, प्रतिक्षण उन्हें रौंदते हुए आगे बढ़ रहा है ! अपने ही भीतर लहूलुहान होती हुई अस्ति और प्राप्ति ! अपने ही मर्मान्त में लगे, कभी न भर सकने वाले बदले के घाव की सड़न अनुभव करती हुई ! 

जानती हैं कि पिता की महाशक्ति का एक थप्पड़ भी नहीं झेल सकेंगे कृष्ण-बलराम ! पर उनके नाश से भी अस्ति और प्राप्ति को सन्तोष नहीं मिलेगा। उस अपमान का हिसाब नहीं चुकाया जा सकेगा जो मथुरा की महारानियों ने झेला है ! उस सिन्दूर की लालिमा उन दोनों के रक्त से भी नहीं लौट सकेगी, जिसे सजाए हुए महाराज कंस की महारानियां गौरव गरिमा से भरी-भरी फूलों लदी बेल की तरह सदा भरी रहती थी। 

सोचती हैं तो विश्वास नहीं होता। दृश्य रह-रहकर दृष्टि के सामने धूमकेतु के अशुभ दर्शन की तरह कौंध उठता है। विशालदेह और दुर्जय शक्ति से सम्पन्न अपने पति को उन चपल बालकों द्वारा इस तरह हत होते देखा था उन्होंने जैसे किसी कीट पतंग को मसला जाते देख रही हों। विस्मय से पलकें जहां की तहां थमी रह गई थीं। सभा में भगदड़ मच गई थी। जिसका जहां सींग समाया, भाग निकले। वे, जिनकी शक्ति के स्तम्भों पर महाबली कंस ने अपने विशाल गणसंघ का आतंक बिखरा रखा था। वे, जो राजा के दृष्टिपथ पर उजियाले के सुझाव बिखराए रहते थे। वे जिनकी क्षमता और योग्यता से मथुराधिपति कंस ने वृष्णि, अंधक और यादवों पर अपना दबदबा बनाए रखा था, उन्हीं को कायरों, मतिभ्रमों की तरह भागते-बिखरते-बदहवास होकर गिरते-लड़खड़ाते देखा था दोनों महारानियों ने। और फिर देखा था सभास्थल के बीचोंबीच लहू से सराबोर पड़े अपने वज्रयष्टि पति कंस को। दोनों रानियों के रोम-रोम में फुरहरियां भर गई थीं। 

वे गोप बालक ? अविश्सनीय ! पर सत्य सामने था। सेविका ने कहा था, ‘‘देवि !... चलें... यह सब असह्य है !’’ किस तरह उठीं, किस तरह अपनी मूर्च्छा संभाले रहीं–इस पल याद नहीं आता। बस, इतना याद है कि आते ही राजभवन में मृतप्राय-सी गिर गई थीं। धीमे-धीमे एक-एक समाचार आता गया था... गोप बालकों ने महाराज उग्रसेन को कारागृह से मुक्त कर दिया है... देवकी और वसुदेव को भी।... और यह भी कि वे बालक देवकी और वसुदेव की ही सन्तति हैं ! कालगति ! मन ने एक उच्छ्वास भरकर सोचा था। याद आया कि किन-किन उपायों से कंस ने उन गोप-बालकों को समाप्त करने की चेष्टा नहीं की थी ? वत्सासुर, केशी, पूतना, चाणूर कितने ही नाम और कितनों की ही समाप्ति के समाचार ! तब भी निश्चिंत थीं अस्ति और प्राप्ति। महाशक्तिशाली कंस को समाप्त करना उन बालकों के लिए असंभव है ! पर यही असंभव विद्युत् गति से ही संभव हो गया था। 

देर बाद सुधि आई थी उन्हें। अस्ति ने पलकें खोलीं तो पाया था कि सेविकाओं से भरा रहनेवाला रनिवास रिक्त पड़ा है। कौंधकर पुकारा था, ‘‘कोई है ?’’ और विश्रांति सामने आ खड़ी हुई थी। आंखों में छलछलाते आंसू चेहरा झुका हुआ, ‘‘आज्ञा, महारानी ?’’ ‘महारानी ?’ लगा था जैसे किसी ने छाती पर घूंसा चला दिया है। अंतड़ियों तक को तोड़ता हुआ। अपने ही भीतर, अपने ही टूटने का स्वर साफ-साफ सुना था उन्होंने। पर शक्ति बटोरी–ऐसे, जैसे, अपना ही छार-छार हो चुका कांच जैसा मन बटोरा हो। कहा था ‘‘जल !...जल दो, विश्रांति !’’ विश्रांति आज्ञापालन में तत्पर हुई। 

अस्ति ने छोटी बहन को देखा... सुधि में होकर भी वह अब तक बेसुध-सी थी। बाल बिखरे हुए। दृष्टि भयजनित पीड़ा से भरी हुई। लगता था कि कुछ ही पलों में दमकते रहनेवाले चेहरे को अमावस ने ग्रस लिया है। वैधव्य की अमावस ! पराधीनता की पीड़ा से पीली हो चुकी पुतलियां ! 
‘‘प्राति !’’ अस्ति ने कहा था। लगा था कि अपनी ओर से बहुत जो़र से बोली है। वह, किंतु स्वर इतना अशक्त हो गया है जैसे स्वयं की आवाज़ को ही किसी गहरे कुंए से ऊपर आते सुना हो उसने। 
प्राप्ति ने पलकें झपकीं... पुतलियां अश्रुहीन थीं। इस तरह मुड़ी जैसे किसी यंत्र का अंग चला हो। भाव शून्य और जड। उत्तर नहीं दिया। सिर्फ़ आंखें टिकाए रखीं बड़ी बहन पर। 
‘‘सब समाप्त हुआ !’’ अस्ति ने उसी तरह डूबी और धुंधलाई आवाज़ में कहा था ‘‘राजगौरव, गरिमा, महत्व और सम्मान... सब समाप्त हुआ !’’ 

कुछ पल सन्नाटा रहा। लगा कि अपने ही शब्द कक्ष में गूंज-गूंजकर लौट आए हैं। प्राप्ति ने एकदम कुछ नहीं कहा। विश्रांति जल से आई थी। अस्ति ने कुछ घूंट पिए। जलपात्र वापस सेविका की ओर बढ़ा दिया। 
प्राप्ति अनायास ही बोली थी, ‘‘मैं जानती थी बहिन ! यह सब समाप्त होना है !’’ 
अस्ति विस्मय और अविश्वास से भरी स्तब्ध देखती रही छोटी बहिन को। क्या ठीक ही सुना था उसने ? प्राप्ति ने वही कहा है जो उसने सुना है ? ...प्राप्ति ने पुनः कह दिया था, ‘‘हां, यह सब होना था, आज नहीं तो किसी और दिन ! पर यह होना ही था !’’ और फिर एक गहरा श्वास बिखर गया था उसका, धुंध की तरह ! 

प्राप्ति के ये शब्द ?... होंठ खुले रह गये थे अस्ति के। नहीं-नहीं, असंभव ! प्राप्ति पति-वध को देखकर मस्तिष्क का संतुलन खो बैठी है। अस्ति को यही लगा था। किंतु प्राप्ति कुछ थमकर आगे भी बोल गई थी, ‘‘सत्तामोह ने मथुराधिपति को असंतुलित कर दिया था बहिन ! कितनी बार कहा था मैंने, पूज्य उग्रसेन को कारावास से मुक्ति दो ! वसुदेव और देवकी के अबोध बालकों का संहार मत करो ! पर कालगति ने उन्हें कभी शुभाशुभ का विचार नहीं करने दिया ! और आज वह सब...’’ सहसा प्राप्ति बिलख पड़ी। ऐसे जैसे किसी पत्थर से झरना बरस पड़ा हो। 

अस्ति को अच्छा नहीं लगा। कैसे अच्छा लगता ? पति कंस ने क्या शुभ किया, क्या अशुभ ? किस क्षण पुण्य संजोया, किस पल पाप सहेजा ? यह सब बात पत्नी के लिए विचारणीय नहीं। हो भी, तो कम-से-कम इस क्षण नहीं। यह क्षण तो पति के वध को लेकर प्रतिशोध के ज्वालामुखी में झुलसने का है। यह क्षण केवल उस ज्वाला को निरंतर प्रज्ज्वलित रखने का है। पर जानती थी अस्ति, प्राप्ति के विचारों और उसके विचारों में कभी समानता नहीं हुई। इस समय भी वही स्थिति। विषय को वहीं तोड़ दिया था उसने पूछा, ‘‘अब ? अब क्या करना चाहोगी तुम ? महान् कंस की विधवा के नाते क्या कर्त्तव्य होना चाहिए हमारा ? जिस कुल ने हमें वैधव्य दिया है, उसके आश्रय में रहने से अधिक अपमानजनक मुझे तो कुछ नहीं लगता !’’ 

प्राप्ति कुछ सहज हुई... पर अपनी बौद्धिकता से पूर्ववत् घिरी हुई। यह स्वभाव था उसका। फिर कब बाध्यता बन गई थी। यह भी याद नहीं। बस इतना याद है कि न कभी किसी विषय पर त्वरित निर्णय लेने की उसे आदत थी, न उस क्षण कर सकी। 
अस्ति ने इस बीच अपने-आप को कुछ सहेज-संजो लिया था। थकी सी चाल से चल पड़ी। जाते-जाते कह गई थी बहिन से, ‘‘तुमने जो भी विचार किया हो या करो, पर मैं निर्णय ले चुकी हूँ... पितृगृह लौट जाऊंगी।’’ 
प्राप्ति ने उत्तर नहीं दिया था, केवल सुना। रिक्त दृष्टि से देखती रही। 

यह रिक्तता ही उत्तर था उसका। प्राप्ति हो या अस्ति–यहां रहे या वहां क्या अंतर पड़ने वाला था ? 
और मथुरा के राजभवन में रहते हुए भी इस रिक्तता से कहां मुक्ति मिली थी प्राप्ति को ? महाराज थे, किंतु राज-काज के नाम पर प्रतिदिन पारिवारिक षड्यंत्रों में व्यस्त। कभी आशंका रहती थी कि गणसंघ के किसी सामन्त के यहां षड्यंत्र पक रहा है और कभी लगता था जैसे राजनीति केवल अंधकार से पूर्ण लंबी अविराम रात्रि बन गई है ! 
शूरसेन जनपद के किसी-न-किसी भाग से कोई-न-कोई अशुभ समाचार मिल जाया करता था। आज किसी ने कोई टिप्पणी की, आज किसी ने महाराज उग्रसेन के वंदीगृह मे होने की चर्चा चलाई और कल किसी को देवकी-वसुदेव की संततियों को महाराज के द्वारा क्रूरतापूर्वक मार डालने की स्मृति आई। 

Thursday, 25 August 2016

19. जय सोमनाथ -एक ऐतिहासिक उपन्यास

जय सोमनाथ 

भारत की प्राचीन संस्कृति के द्योतक सोमनाथ के भग्नावशेषों में आज फिर से नए जीवन का संचार हो रहा है। जय सोमनाथ भारतीय इतिहास के उसी युग का संस्मरण है जब सोमनाथ के विश्वविख्यात मंदिर का ग़ज़नी के महमूद के हाथों पतन हुआ और इस तरह यवनों द्वारा हमारी संस्कृति को एक असह्य धक्का सहना पड़ा। इस ऐतिहासिक गाथा को सुविख्यात लेखक और इतिहासवेत्ता कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने एक अत्यन्त रोचक उपन्यास का रूप दिया है। इस उपन्यास में उस युग की राजनीतिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि में ही इतिहास के पात्र फिर से सजीव हो उठे हैं। भाषा, भाव, शैली और प्रतिपत्ति की दृष्टि से जय सोमनाथ साहित्य-जगत को मुंशीजी की अमूल्य देन है।

18. 121 दिमागी कसरतें

यह एक प्रामाणिक वैज्ञानिक तथ्य है कि मानसिक कसरतें हमारे मस्तिष्क को जवान और ऊर्जावान बनाए रखती हैं। इस पुस्तक में ऐसी समस्याओं और पहेलियों का संग्रह है, जो इसी प्रकार की दिमागी कसरतें करवाती हैं


17. आजादी के परवाने (Freedom Lovers)

आजादी के परवाने (Freedom Lovers)

ये उन बलिदानिओ का जीवन चरित्र का संग्रह है जो देस के लिए हस्ते हस्ते बलिदान हो गए.....यह कहानी रूपान्तरण है 

मातृभूमि के लिए अब मिट जाना ही हमारा वास्तविक कर्तव्य है, आगे प्रभु की इच्छा।----कुछ ऐसे ही सोच रखने बाले वैरो का ये गाथा है ......जिसके बलिदान के बदौलत आज हम आजाद भारत मे सांस ले रहे है ..........


आज़ादी के परवाने, किसी से नहीं डरा करते

हो अगर बलिदान का वक्त, तो पीछे नहीं हटा करते
रहता है बस एक ही धुन, मुल्क कि आज़ादी
तोड़ देते है इसके लिए, ये सारे पाबन्दी

जनता पुकारती है इन्हें, कहकर शूरवीर
मिटा देते है दुश्मनों को, जैसे हो कोई लकीर
अपना सर्वस्व कर देते है, वतन पर अर्पण
अपनी अंतिम साँस तक, नहीं करते समर्पण

वीरो तरह ही जीते है, वीरो की तरह ही मरते है
अपनी पूरी जिंदगी, वतन के नाम करते है
घर बार सब त्यागकर, अकेले ही रहते है
अपने लहू से वतन का, रुद्राभिषेक करते है

अपनी हथियार उठा, जब करते है ललकार
दुश्मन थर थर कांपता है, और दिखते है लाचार
वतन पर शहीद होने को, रहते है ये आतुर
ऐसे वीर जवानो का, क्या कर लेंगे ये असुर

16. मानसरोवर 1 to 8

प्रेमचंद ने 14 उपन्यास व 300 से अधिक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण कहानियों को 'मानसरोवर' में संजोकर 8 भागो  मे  प्रस्तुत किया है। इनमें से अनेक कहानियाँ देश-भर के पाठ्यक्रमों में समाविष्ट हुई हैं तथा कई पर नाटक व फ़िल्में बनी हैं जब कि कई का भारतीय व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

अपने समय और समाज का ऐतिहासिक संदर्भ तो जैसे प्रेमचंद की कहानियों को समस्त भारतीय साहित्य में अमर बना देता है। उनकी कहानियों में अनेक मनोवैज्ञानिक बारीक़ियाँ भी देखने को मिलती हैं। विषय को विस्तार देना व पात्रों के बीच में संवाद उनकी पकड़ को दर्शाते हैं। ये कहानियाँ न केवल पाठकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उत्कृष्ट साहित्य समझने का क्षमता को  भी बढाता है---
    


Wednesday, 24 August 2016

15. जीवट की कहानियाँ

  1. जीवट का अर्थ होता है- साहसी लोग  या फिर ह्रदय की वह दृढ़ता जिसके कारण मनुष्य साहसिक कार्यों में निर्भय होकर प्रवृत्त होता है
ये पुस्तक मे कुछ ऐसे ही लोगो का साहसिक कार्यो का वर्णन है........ जो अपने जीवन को ज्ञान, विज्ञान के लिए नौछावर कर दिये -----



Tuesday, 23 August 2016

14. Chandrkanta Santati.apk

https://play.google.com/store/apps/details?id=cbinternational.Chandrakanta

13. सरलक होल्म्स की कहानियाँ-छीटेदार फिते का रहस्य

सरलक होल्म्स की कहानियाँ

12. सरलक होल्म्स की कहानियाँ-बोहेमिया की बदनामी

सरलक होल्म्स की कहानियाँ

11. सामान्य ज्ञान

Sunday, 21 August 2016

10. PREMCHAND KI KHANIYA

Book World से ----
One of the most respectable writer in the HINDI SAHITYA world.....

                                             
                                        PREMCHAND KI KHANIYA

9. पाँच पापी-SMP

पाँच पापी-SMP

साधूराम होतचन्दानी के बंगले के ड्राइंगरूम के तमाम खिड़कियाँ दरवाजे बन्द थे।

साधूराम हतचन्दानी एक व्यापारी था जिसने नेपाल में रहकर काफी दौलत कमाई थी। इस दौलत का ज्यादातर हिस्सा उसने बेईमानी और धोखाधड़ी से कमाया था। पच्चास के उम्र के आसपास का होतचन्दानी अब अपना सारा कारोबार बेचकर और अचरा, जो कि एक बेहद खूबसूरत थाई महिला थी, के साथ वापस भारत जाना चाहता था। लेकिन उसकी ये इच्छा केवल इच्छा ही रह गयी जब किसी ने उसकी छाती में गोली दाग़ दी।
क़त्ल का शक पांच लोगों के ऊपर था। एक उसका बेटा मानक होतचन्दानी, जिसे साधूराम की कभी नहीं बनी, उसका दमान योगेश कृपलानी,जो कि बुरी तरह से कर्जे में डूबा हुआ था, उसकी जवान माशूका अचरा योसविचित( जो शायद पैसे के लिए ही उसके साथ थी), कैप्टेन विलययम मूंग विन( अचरा का ख़ास दोस्त जो उसका प्रेमी भी हो सकता था) और आखिरी में साधूराम का वकील मच्छेन्द्रनाथ राणा। 
 तो कौन था इनमे से कातिल और आखिर क्यों हुई थी साधूराम की हत्या?
पुकीस के इलावा विवेक जालान भी कातिल का पता लगाना चाहता था। क्योंकि पुलिस की निगाह में वो भी कातिल हो सकता था। और केस सॉल्व हुए बिना वो नेपाल से बाहर नहीं जा सकता था जो कि उसके लिए बहुत जरूरी था।
क्या वो इस गुत्थी को सुलझा पाया।
इनके इलावा एक और संदिग्ध आदमी था और वो था दामोदर खैतान, जो कि साधूराम से पचास लाख के हीरे खरीदने का इच्छुछुक था। लेकिन साधुराम की मौत के बाद जब जवाहरात भी चोरी हो गए तो वो अब उस चोर की तलाश में था जिसने उन्हें चुराया था। उसे लग रहा था कि वो जवाहारात उन पाँचों में से ही किसी के पास थे। तो क्या उसे वो जवाहरात मिले? आखिर उन जवाहरातों में ऐसा क्या था जो उन्हें खरीदने के लिए दामोदर इतना बेकरार  था?
सवाल कई हैं और जवाब उपन्यास के अंदर ही आपको मिलेंगे। 

सुरेंद्र मोहन पाठक जी के इस उपन्यास के विषय में अपनी राय दू तो यह उपन्यास मुझे बेहद पसंद आया। उपन्यास की शैली हु डन इट की है। अगर आप इस तरह ले उपन्यासों के शौक़ीन हैं तो आपको पता होगा कि इस तरह के  उपन्यासों में एक क़त्ल होता है और उसका संदेह एक से ज्यादा लोगों पर होता है। फिर उपन्यास का नायक उन लोगों  में से असली अपराधी को ढूँढता है। यह उपन्यास भी ऐसा ही है। इसमें हीरो के ऊपर भी पुलिस को कत्ल का शक होता है और अपने आप को बेगुनाह साबित करने उसे कातिल को ढूँढना होता है
DOWNLODE-पाँच पापी-SMP

Thursday, 18 August 2016

8. आपकी राय---

Friends ........I have all part of --BHOOTNATH........if u want I will upload.............your comment is invited .... for uploading.. the BOOK............. 

7. सूर्य सिद्धान्त

सूर्य सिद्धान्त

एक ऐसी पुस्तक जो आपको प्राचीन भारत के विज्ञान के बारे मे सोचने पर मजबूर कर देगा ----
'''सूर्य सिद्धांत ''' कई [[सिद्धान्त]]-ग्रन्थों के समूह का नाम है। यह [[भारतीय खगोलशास्त्र]] का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। वर्तमान समय में उपलब्ध ग्रन्थ मध्ययुग में रचित ग्रन्थ लगता है किन्तु अवश्य ही यह ग्रन्थ पुराने संस्क्रणों पर आधारित है जो ६ठी शताब्दी के आरम्भिक चरण में रचित हुए माने जाते हैं।

[[भारतीय गणितज्ञ]] और खगोलशास्त्रियों ने इसका सन्दर्भ भी लिया है, जैसे [[आर्यभट्ट]] और [[वाराहमिहिर]], आदि. वाराहमिहिर ने अपने ''पंचसिद्धांतिका'' में चार अन्य टीकाओं सहित इसका उल्लेख किया है, जो हैं:
* [[पैतामाह सिद्धांत]], (जो कि परम्परागत [[वेदांग ज्योतिष]] से अधिक समान है),
* [[पौलिष सिद्धांत]]
* [[रोमक सिद्धांत]] (जो यूनानी खगोलशास्त्र के समान है) और
* [[वशिष्ठ सिद्धांत]].

सूर्य सिद्धांत नामक वर्णित कार्य, कई बार ढाला गया है। इसके प्राचीनतम उल्लेख बौद्ध काल (तीसरी शताब्दी, ई.पू) के मिलते हैं। वह कार्य, संरक्षित करके और सम्पादित किया हुआ (बर्गस द्वारा १८५८ में) मध्य काल को संकेत करता है। [[वाराहमिहिर]] का दसवीं शताब्दी के एक टीकाकार, ने सूर्य सिद्धांत से छः श्लोकों का उद्धरण किया है, जिनमें से एक भी अब इस सिद्धांत में नहीं मिलता है। वर्तमान सूर्य सिद्धांत को तब वाराहमिहिर को उपलब्ध उपलब्ध पाठ्य का सीधा वंशज माना जा सकता है।<ref>रोमेश चन्दर दत्त, ए हिस्ट्री आफ़ सिविलाईज़ेशन इन एन्क्शीएन्ट इण्डिया, संस्कॄत साहित्य पर आधारिय, vol. 3, ISBN 0-543-92939-6 p. 208.</ref> इस लेख में बर्गस द्वारा सम्पादित किया गया संस्करण ही मिल पायेगा. [[गुप्त काल]] के जो साक्ष्य हैं, उन्हें पठन करने हेतु देखें [[पंच सिद्धांतिका]].

इसमें वे नियम दिये गये हैं, जिनके द्वारा ब्रह्माण्डीय पिण्डों की गति को उनकी वास्तविक स्थिति सहित जाना जा सकता है। यह विभिन्न तारों की स्थितियां, चांद्रीय नक्षत्रों के सिवाय; की स्थिति का भी ज्ञान कराता है। इसके द्वारा [[सूर्य ग्रहण]] का आकलन भी किया जा सकता है।



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