जन सामान्य में हमारे प्राचीन ऋषियों-मुनियों के बारे में ऐसी धारणा जड़ जमाकर बैठी हुई है कि वे जंगलों में रहते थे, जटाजूटधारी थे, भगवा वस्त्र पहनते थे, झोपड़ियों में रहते हुए दिन-रात ब्रह्म-चिन्तन में निमग्न रहते थे, सांसारिकता से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं रहता था।
इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।
महर्षि भारद्वाज और कोई नही बल्कि वही ऋषि है जिन्हें त्रेता युग में भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य दो बार प्राप्त हुआ । एक बार श्री राम के वनवास काल में तथा दूसरी बार श्रीलंका से लौट कर अयोध्या जाते समय। इसका वर्णन वाल्मिकी रामायण तथा तुलसीदास कृत रामचरितमानस में मिलता है |
तीर्थराज प्रयाग में संगम से थोड़ी दूरी पर इनका आश्रम था, जो आज भी विद्यमान है। महर्षि भरद्वाज की दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें से एक (सम्भवत: मैत्रेयी) महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्याही थीं और दूसरी इडविडा (इलविला) विश्रवा मुनि को |

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इसी पंगु अवधारणा का एक बहुत बड़ा अनर्थकारी पहलू यह है कि हम अपने महान पूर्वजों के जीवन के उस पक्ष को एकदम भुला बैठे, जो उनके महान् वैज्ञानिक होने को न केवल उजागर करता है वरन् सप्रमाण पुष्ट भी करता है। महर्षि भरद्वाज हमारे उन प्राचीन विज्ञानवेत्ताओं में से ही एक ऐसे महान् वैज्ञानिक थे जिनका जीवन तो अति साधारण था लेकिन उनके पास लोकोपकारक विज्ञान की महान दृष्टि थी।
महर्षि भारद्वाज और कोई नही बल्कि वही ऋषि है जिन्हें त्रेता युग में भगवान श्री राम से मिलने का सोभाग्य दो बार प्राप्त हुआ । एक बार श्री राम के वनवास काल में तथा दूसरी बार श्रीलंका से लौट कर अयोध्या जाते समय। इसका वर्णन वाल्मिकी रामायण तथा तुलसीदास कृत रामचरितमानस में मिलता है |
तीर्थराज प्रयाग में संगम से थोड़ी दूरी पर इनका आश्रम था, जो आज भी विद्यमान है। महर्षि भरद्वाज की दो पुत्रियाँ थीं, जिनमें से एक (सम्भवत: मैत्रेयी) महर्षि याज्ञवल्क्य को ब्याही थीं और दूसरी इडविडा (इलविला) विश्रवा मुनि को |
महाभारत काल तथा उससे पूर्व भारतवर्ष में भी विमान विद्या का विकास हुआ था । न केवल विमान अपितु अंतरिक्ष में स्थित नगर रचना भी हुई थी | इसके अनेक संदर्भ प्राचीन वांग्मय में मिलते हैं । निश्चित रूप से उस समय ऐसी विद्या अस्तित्व में थी जिसके द्वारा भारहीनता (zero gravity) की स्थति उत्पन्न की जा सकती थी । यदि पृथ्वी की गरूत्वाकर्षण शक्ति का उसी मात्रा में विपरीत दिशा में प्रयोग किया जाये तो भारहीनता उत्पन्न कर पाना संभव है | | ||||||
विद्या वाचस्पति पं. मधुसूदन सरस्वती " इन्द्रविजय " नामक ग्रंथ में ऋग्वेद के छत्तीसवें सूक्त प्रथम मंत्र का अर्थ लिखते हुए कहते हैं कि ऋभुओं ने तीन पहियों वाला ऐसा रथ बनाया था जो अंतरिक्ष में उड़ सकता था । पुराणों में विभिन्न देवी देवता , यक्ष , विद्याधर आदि विमानों द्वारा यात्रा करते हैं इस प्रकार के उल्लेख आते हैं । त्रिपुरासुर याने तीन असुर भाइयों ने अंतरिक्ष में तीन अजेय नगरों का निर्माण किया था , जो पृथ्वी, जल, व आकाश में आ जा सकते थे और भगवान शिव ने जिन्हें नष्ट किया । वेदों मे विमान संबंधी उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलते हैं। ऋषि देवताओं द्वारा निर्मित तीन पहियों के ऐसे रथ का उल्लेख ऋग्वेद (मण्डल 4, सूत्र 25, 26) में मिलता है, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करता है। ऋषिओं ने मनुष्य-योनि से देवभाव पाया था। देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमारों द्वारा निर्मित पक्षी की तरह उडऩे वाले त्रितल रथ, विद्युत-रथ और त्रिचक्र रथ का उल्लेख भी पाया जाता है। महाभारत में श्री कृष्ण, जरासंध आदि के विमानों का वर्णन आता है । वाल्मीकि रामायण में वर्णित ‘पुष्पक विमान’ (जो लंकापति रावण के पास था) के नाम से तो प्राय: सभी परिचित हैं। लेकिन इन सबको कपोल-कल्पित माना जाता रहा है। लगभग छह दशक पूर्व सुविख्यात भारतीय वैज्ञानिक डॉ0 वामनराव काटेकर ने अपने एक शोध-प्रबंध में पुष्पक विमान को अगस्त्य मुनि द्वारा निर्मित बतलाया था, जिसका आधार `अगस्त्य संहिता´ की एक प्राचीन पाण्डुलिपि थी। अगस्त्य के `अग्नियान´ ग्रंथ के भी सन्दर्भ अन्यत्र भी मिले हैं। इनमें विमान में प्रयुक्त विद्युत्-ऊर्जा के लिए `मित्रावरुण तेज´ का उल्लेख है। महर्षि भरद्वाज ऐसे पहले विमान-शास्त्री हैं, जिन्होंने अगस्त्य के समय के विद्युत् ज्ञान को अभिवर्द्धित किया। ![]() इस ग्रंथ के पहले प्रकरण में प्राचीन विज्ञान विषय के पच्चीस ग्रंथों की एक सूची है, जिनमें प्रमुख है अगस्त्यकृत - शक्तिसूत्र, ईश्वरकृत - सौदामिनी कला, भरद्वाजकृत - अशुबोधिनी, यंत्रसर्वसव तथा आकाश शास्त्र, शाकटायन कृत - वायुतत्त्व प्रकरण, नारदकृत - वैश्वानरतंत्र, धूम प्रकरण आदि । ![]() निर्मथ्य तद्वेदाम्बुधिं भरद्वाजो महामुनिः । नवनीतं समुद्घृत्य यन्त्रसर्वस्वरूपकम् । प्रायच्छत् सर्वलोकानामीप्सिताज्ञर्थ लप्रदम् । तस्मिन चत्वरिंशतिकाधिकारे सम्प्रदर्शितम् ॥ नाविमानर्वैचित्र्यरचनाक्रमबोधकम् । अष्टाध्यायैर्विभजितं शताधिकरणैर्युतम । सूत्रैः पञ्चशतैर्युक्तं व्योमयानप्रधानकम् । वैमानिकाधिकरणमुक्तं भगवतास्वयम् ॥
![]() अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत शोध मण्डल ने प्राचीन पाण्डुलिपियों की खोज के विशेष प्रयास किये। फलस्वरूप् जो ग्रन्थ मिले, उनके आधार पर भरद्वाज का `विमान-प्रकरण´, विमान शास्त्र प्रकाश में आया। इस ग्रन्थ का बारीकी से अध्यन करने पर आठ प्रकार के विमानों का पता चला : 1. शक्त्युद्गम - बिजली से चलने वाला। 2. भूतवाह - अग्नि, जल और वायु से चलने वाला। 3. धूमयान - गैस से चलने वाला। 4. शिखोद्गम - तेल से चलने वाला। ![]() 6. तारामुख - चुम्बक से चलने वाला। 7. मणिवाह - चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त मणियों से चलने वाला। 8. मरुत्सखा - केवल वायु से चलने वाला। |

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